✏सुनील कुमार
‘‘देष में दवा से लेकर राषन तक पर्याप्त भंडार है।
सप्लाई
चैन की बाधाएं लगातार दूर की जा रही है।’’
- नरेन्द्र मोदी, 14 अप्रैल, 2020
दुनिया भर में कोरोना मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।
दुनिया भर में 25 अप्रैल, 2020 तक 2,832,520 लोग संक्रमित हो चुके हैं
जिनमें से 1,97,343 की मृत्यु हो चुकी हैं और 8,07,040
ठीक हो चुके हैं। भारत में मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है; अभी
तक 24,530 लोग कोरोना से संक्रमित हो चुके हैं जिनमें से 780
की
मृत्यु हुई हैं और 5,498 मरीज ठीक हुए हैं। 30
जनवरी को कोरोना से संक्रमित पहला मरीज मिला और 12 मार्च को कोरोना से पहली
मृत्यु भारत में हुई। भारत में 10 हजार मरीजों की संख्या पहुंचने
में 73 दिन लगा वहीं 10 से बीस हजार होने में मात्र 8
दिन लगे। 20 हजार तक के मरीजों की संख्या में देखा जाये तो भारत में
मृत्यु दर अमेरिका और चीन से भी ज्यादा है।
20 हजार कोरोना के मरीज अमेरीका में थे तो वहां मृत्यु दर 1.6, चीन
में 2.1 थी और भारत में मृत्यु दर 3.2 है। जर्मन शोधकर्ताओं के
अनुसार 6 अप्रैल तक भारत में 1,36,000 कोरोना से संक्रमित मरीज हो
चुके हैं। इस स्थिति में हम इसको कम्युनिटी ट्रांसमिशन भी कह सकते हैं, जिसका
रूप हमें जहांगीरपुरी के दो ब्लॉकां में देखने को मिला है। कई पुलिसकर्मी ड्युटी के दौरान कोरोना संक्रमण के शिकार हो गए
हैं लेकिन भारत अभी भी इसको कम्युनिटी ट्रांसमिशन नहीं मानता है।
इसकी भयावहता का पता इसी से चलता है कि दुनिया का सुपर पॉवर
अमेरिका कहता है कि कोरोना से हम अगर 1.5-2.0 लाख मृत्यु पर रोक सके तो भी
हम सफल माने जायेंगे। यह हालत तब उभरी है जब तीन माह पहले चीन में इस बीमारी के घातक परिणाम देखने को मिल
चुके थे। जब यह बीमारी चीन तक ही सीमित थी, विश्व स्वास्थ्य संगठन की
दक्षिण-पूर्व एशिया के क्षेत्रीय डायरेक्टर पूनम खेत्रपाल ने भारत के स्वास्थ्य
मंत्री को तीन बार पत्र लिखकर कोरोना से निपटने के लिए जरूरी कदम उठाने को कहा था।
भारत सरकार ने करोना के खतरे को देखते हुए डॉ. हर्ष वर्धन की अध्यक्षता में ग्रुप
ऑफ मिनिस्टर्स (जीओएम) बनाया है, जिसकी पहली बैठक 3
फरवरी को हुई, जिसमें सभी सम्बंधित मंत्रालयों के सचिव भी उपस्थित थे। इस
बैठक में केरल में पाए गए पहले कोरोना के मरीज पर चर्चा हुई और भारत सरकार को क्या
करना चाहिए इसका जिक्र भी हुआ। 25 फरवरी,
2020
को इटली में 11 मौतें हो चुकी थीं तो भारत सरकार के विदेश व्यापार निदेशालय
ने प्रतिबंध में और ढील दी गई और नए आइटमों के निर्यात की अनुमति दी गई। 27
फरवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा था कि कई देशों में पीपीई की सप्लाई बाधित
हो सकती है उसके बावजूद नियमों में बदलाव करके पीपीई किटें निर्यात की जाती रही
हैं। भारत के प्रधानमंत्री के सम्बोधन के बाद 19 मार्च,
2020
को भारत में बने पीपीई किट के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया गया। स्थिति यह हो गई कि
जनता कर्फ्यू’ के दिन ही जब शंख और घड़ियाल बजाये जा रहे थे उसी समय डॉ. राम
मनोहर लोहिया इंस्ट्चि्युट, लखनऊ से उत्तर प्रदेश नर्सेज
एसोसिएशन के प्रदेश महामंत्री सुजे सिंह ने लाइव प्रसारण करके अपनी समस्याओं को
लोगों के बीच रखा। सुजे सिहं ने बताया कि ‘‘एन-95 मास्क नहीं है। प्लेन मास्क से
मरीजों की देख भाल कर रहे हैं। हमें बेसिक चीजें नहीं दी जा रही हैं और कहा जा रहा
है कि बोलिये मत। हमें पीपीई कीट नहीं मिल सकती क्या यह देश इतना गरीब हो गया है?’’ एनएमसीएच
के डॉक्टरों ने प्रधानमंत्री कार्यालय, बिहार स्वास्थ्य विभाग और
मुख्यमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर कहा था- ‘‘अस्पताल में पीपीई और एन-95
मास्क डॉक्टरों को नहीं मिल रहा है तो मरीजों को कहां से मिलेगा?’’ एम्स
के रेजिडेंट डॉक्टर एसोसिएशन ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अपील की है कि सुरक्षा
उपकरणों की कमी का मुद्दा उठाने वाले डॉक्टरों को परेशान न किया जाएं। हिन्दू राव
के जूनियर रेजिडेंस डॉक्टर पीयूष पुष्कर सिंह ने 14 मार्च को सुरक्षा संसाधनों पर
सवाल उठाया था जिसके कारण 15 अप्रैल को पीयूष सिंह को
अनुशासनहीनता के आरोप में बर्खास्त कर दिया गया। इससे पहले 1
अप्रैल को चार कॉन्ट्रैक्चुअल डॉक्टरों ने हिन्दू राव से पीपीई किट मुहैया नहीं
कराने के कारण इस्तीफा दे दिया था। फेडरेशन ऑफ रेजिडेंट डॉक्टर एसोशिएशन के
अध्यक्ष डॉ. शिवजी देव बर्मन ने कहा है कि सभी स्वास्थ्यकर्मियों को बेहतरीन
गुणवत्ता के सुरक्षा उपकरण उपलब्ध कराने होंगे। एम्स आरडीए के अध्यक्ष डॉ. आदर्श
प्रताप सिंह ने एम्स के डायरेक्टर रणदीप गुलेरिया को भी पत्र लिख कर मांग की है कि
‘‘हर वक्त पीपीई की उपलब्धता को तय करे ताकि डॉक्टर और नर्सों
को सुरक्षा मुहैया कराई जा सके। रेजिडेंट डॉक्टर एसोसिएशन के महासचिव डॉ.
श्रीनिवासन राजकुमार का कहना है कि सुरक्षा उपकरणों की कमी का मुद्दा किसी से छिपा
नहीं है। डॉ. राजकुमार कहते हैं कि शुक्रवार (3 अप्रैल, 2020) को सुबह डॉक्टर और नर्सें ट्रेंनंग पर आए तो वे
अपने मास्क लेकर आए थे। एम्स प्रशासन पीपीई के रियूज (दोबारा इस्तेमाल) करने का
सुझाव दिया है जोकि हेल्थ मिनिस्ट्री की गाइडलाइन की अवहेलना है। देश के विभिन्न
हिस्सों से डॉक्टरों, नर्सों ने सुरक्षा किट को लेकर
सवाल उठाये हैं। इन स्वास्थ्यकर्मियों की चिंता जायज है, क्योंकि देश के कई अस्पतालों से
डॉक्टरों, नर्सों की कोरोना से संक्रमित होने की खबरें आ रही हैं, जिनमें
से कई लोगों कि जाने भी जा चुकी हैं। देश के कई हिस्सों से सैकड़ों की संख्या में
डॉक्टर और नर्सों को क्वारंटाइन (एकांतवास) में जाने की खबरें आ रही हैं। पहले से
ही भारत में करीब 6 लाख डॉक्टर और 20
लाख नर्सों की कमी है अगर डॉक्टर, नर्सें जो उपलब्ध हैं उनको भी
क्वारंटाइन में जाना पड़ा तो मरीजों को कौन देखेगा?
स्थिति यह हो गई है कि हमें दूसरें देशों से महंगी पीपीई किट
आयात करनी पड़ रही है। भारत सरकार ने विश्व स्वास्थ्य संगठन से दस लाख किट की मांग
की है। भारत की दो कम्पनियों ने 40 हजार पीपीई किट सरकार को डोनेट
किया था, जिसका परीक्षण ग्वालियर की डिफेंस रिसर्च ऐंड डिवेलपमेंट
ऑर्गनाइजेशन (डीआरडीओ) की लैबोरेटरी में हुई, जो कि सुरक्षा के मापदंडों में
खरा नहीं उतरा। लॉक डाउन के 10 दिन बाद 5
अप्रैल को चीन से 1.70 लाख पीपीई किट्स आई थी जिसमें 50
हजार डीआरडीओ की जांच में क्वालिटी पास नहीं कर पाई जिसके कारण सभी किटों के वितरण
पर रोक लगा दी गई। भारत में प्रति दिन 1-1.25 लाख पीपीई किट की आवश्यकता है।
जेएनएमसी के रेजिडेंट डॉक्टर एसोसिएशन (आरडीए) के अध्यक्ष बताते हैं कि ‘‘पिछले
एक महिने से हम अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से लेकर स्वास्थ्य मंत्रालय तक को चिट्ठियां लिख
चुके हैं कि हमें पर्याप्त मात्रा में पीपीई किट उपलब्ध करवाया जाएं। कोरोना से
लड़ने के लिए लॉकडाउन हो रहा है, वह बहुत अच्छा कदम है। लेकिन
अगर सरकार इस लड़ाई में अपने योद्धाओं को हथियार (पीपीई किट) ही नहीं मुहैय्या
करवाएगी तो हम कोरोना से लड़ाई कैसे जीतेंगे? इतना कहने के बाद अभी डॉक्टरों
को मास्क मिलना तो शुरू हुए है लेकिन स्टॉक नहीं है। इसलिए हम आरडीए ने खुद से
पैसा जुटाकर 150 पीपीई किट खरीद लिए है ताकि काम चलता रहे।’’ यही
हालत बिहार में देखने को मिला जब डॉक्टर पीपीई किट के लिए सड़क पर चंदा मांग रहे
थे। हिमाचल के सबसे बड़े मातृ एवं शिशु अस्पताल, केएनएच में मास्क की कमी के
कारण 13 मार्च, 2020 को डॉक्टरों ने सिजेरियन करने
से मना कर दिया। डॉक्टरों को कहा गया कि टोपी को ही मास्क की तरह प्रयोग करें
जिससे डॉक्टर नाराज हो गये। अस्पताल प्रबंधन ने दर्जी से चार मास्क सिलवा कर दिया।
चीन इस तरह का व्यवहार भारत के साथ ही नहीं दुनिया के अन्य
देशों के साथ कर रहा है। पाकिस्तान को जो मास्क बेचा वह भी खराब क्वालिटी का था।
स्पेन के स्वास्थ्य मंत्री सैल्वाडोर इला ने कहा है कि 3456 करोड़ रू. में चीन से 950
वेंटिलेटर, 55 लाख टेस्टिंग किट्स, 1.1 करोड़ ग्लब्स और 50
करोड़ फेस मास्क खरीदे हैं। खराब क्वालिटी के होने के कारण 9,000
कोरोना टेस्ट किट चीन को लौटा दिया गया। चीन ने भी माना है कि स्पेन को बेची गई
टेस्ट किट चीनी कम्पनी बायोइजी से खरीदा गया था। बायोइजी कम्पनी के पास कोरोना टेस्ट
किट्स बनाने का लाइसेंस तक नहीं है। चीन प्रति दिन 11.6 करोड़ फेस मास्क बना रहा है जो
कि उसकी क्षमता से 12 गुना ज्यादा है। भारत में
किट्स चीन, जापान और कोरिया से मंगाये जा रहे हैं। यूरोप और अमेरिका ने
किट्स का निर्यात बंद कर दिया है। सरकार ने ट्रेडर्स के जरिए 10
लाख पीपीई किट का ऑर्डर दिया है लेकिन ये सभी सूट्स चीन से आने हैं। सरकार ने
एचएलएल को मई 2020 तक साढ़े सात लाख पीपीई, 60 लाख एन-95
मास्क और एक करोड़ तीन लाख प्लाई मास्क तैयार करने का ऑर्डर दिया है।
आईसीएमआर के एक वैज्ञानिक के अनुसार 25 मार्च को 10
लाख टेस्ट किट के लिए आवेदन मांगे गए थे। इतनी मात्रा के लिए किसी कम्पनी का आवेदन
नहीं मिलने के बाद 28 मार्च को 5
लाख टेस्ट किट के लिए आवेदन मांगे गए, जिसमें चीन की कम्पनी को इस
शर्त पर ठेका मिला कि ज्यादा से ज्यादा किट की आपूर्ति अप्रैल के पहले हफ्ते में
होना चाहिए। इसी कम्पनी को 4 लाख किट का ऑर्डर तामिलनाडु
सरकार ने भी दिया था। चीन की यह कम्पनी ने 9 अप्रैल को 2.5
लाख किट भारत को भेजने वाला था, जिसमें से 50
हजार तामिलनाडु जाना था। 2.5 लाख किट भारत की जगह कम्पनी ने
अमेरिका भेज दिया। 15 अप्रैल को 6.5
लाख टेस्टिंग किट भारत आई। जिसमें से 50 हजार असम को भेजा गया बाकी
प्रदेशों को 17 अप्रैल को किट दिया गया। 21 अप्रैल को राजस्थान सरकार ने
इस कीट पर सवाल उठाया उसके बाद बाकी के राज्यों ने कहा कि इस किट से रिजल्ट 71
प्रतिशत तक गलत आ रहा है। आईसीएमआर ने इस किट से टेस्टिंग पर 22
और 23 अप्रैल दो दिन की रोक लगा दी। कोरोना की लड़ाई में पहले पीपीई
किट ने धोखा दिया और बाद में टेस्टिंग किट ने। भारत के प्रधानमंत्री कहते हैं
कि देश में दवा का पर्याप्त भंडार है
लेकिन देखा जा रहा है कि हम अपने सैनिकों (स्वास्थ्यकर्मियों) को बिना हथियार के
ही बॉर्डर पर भेज दे रहे हैं लड़ने के लिए जिनमें उनकी जानें भी जा रही हैं। इस
स्थिति में सवाल उठना लाजमी है कि जनवरी माह में कोरोना मरीज मिलने और विश्व
स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी के बावजूद कोरोना से लड़ने के लिए आवश्यक पीपीई किट का
निर्यात क्यों होता रहा? आईसीएमआर के 22
मार्च को जारी किए गए दिशा निर्देशों के अनुसार कोरोना के संदिग्ध मरीजों की जांच
और आइसोलेशन वार्ड में काम करने वाले सभी स्वास्थ्य कर्मचारियों को बचाव के लिए
हाईड्रोक्सीक्लोरोक्वीन की निश्चित खुराक खाने की सलाह दी गई है। 25
मार्च को हाईड्रोक्सीक्लोरोक्वीन के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया था लेकिन
ट्रम्प के दबाव में आकर 7 अप्रैल को यह कहते हुए निर्यात
को मंजूरी दे दी गई कि देश में पर्याप्त संख्या में यह दवा मौजूद है। जेएनएमसी के
डॉ. कहते हैं कि हाईड्रोक्सीक्लोरोक्वीन भारत में बड़ी तादाद में उत्पादित होने के
बावजूद जमीन पर काम कर रहे डॉक्टरों को यह दवा उपलब्ध नहीं है। ऐसा तो नहीं कि एक
दिन हाईड्रोक्सीक्लोरोक्वीन दवा की भी कमी भारत में महसूस की जाएगी? 5
अप्रैल को जनसत्ता में छपी खबर के अनुसार सरकार ने 4 अप्रैल, 2020
को जांच किट (डायग्नॉस्टिक किट) के निर्यात पर प्रतिबंध लगाई!
सरकार लॉक डाउन करके कोरोना बीमारी से लड़ना चाहती है जबकि
जरूरत है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों की जांच की जाए। आईएसीएमआर की आंकड़ों के
अनुसार 25 अप्रैल सुबह 9 बजे तक 5,79,957
लोगों का टेस्ट भारत में किया जा चुका है। जब कि कोरोना के मरीज मिले हुए 80
दिन से ज्यादा हो चुका है और लॉक डाउन का 32 दिन हो चुका है। सरकार का पूरा
ध्यान कोरोना पर है जबकि देश में कोरोना के अलावा बहुत सी बीमारियों से लोग साल
में मरते हैं। कोरोना वायरस से फैले संक्रमण ही ऐसी महामारी नहीं है जिसने लोगों
की जिन्दगियां तबाह की है। सच्चाई है कि विश्व में स्वास्थ्य सुविधाओं के विकास और
व्यवस्था के बावजूद हर साल लाखों लोग विभिन्न जानलेवा बीमारियों के शिकार हो जाते
हैं। उदाहरणस्वरूप, 2017 के आकड़ों के अनुसार हमारे देश
में हार्ट अटैक से 15,40,328, कैंसर से 1,65,424, फेफड़े
की बीमारी से 9,58,596, इन्फ्लेंजा से 57,364, टीवी
से 4,49,794, किडनी की बीमारी से 2,23,824 लोगों की मौतें हुई हैं।
जब भारत कोरोना बीमारी से जूझ रहा है और पूरा देश लॉकडाउन से
गुजर रहा है तो राजधानी दिल्ली सहित देश के अन्य क्षेत्रों में लोगों की दूसरी बीमारियों
से मौतें हो रही हैं, क्योंकि अधिकांश अस्पतालों के
ओपीडी बंद कर दिए गए हैं। सोशल साईट पर दिखयये गए एक विडियो में एक महिला की मौत
इसलिए हो जाती है कि राममनोहर लोहिया अस्पताल में उसकी भर्ती नहीं की जाती है। ऐसी
ही कई विडियो सोशल साईट पर देखने को मिले हैं कि रोगी अस्पताल के बाहर तड़प रहा है, लेकिन
स्वास्थ्यकर्मी उनके पास तक नहीं आ रहे हैं। एक विडियो करिश्मा वर्मा का वायरल हुआ
है जो कि यूपी के जिला हरदोई, शाहाबाद की रहने वाली हैं। उनके
पिता की मृत्यु इलाज के अभाव में 14 अप्रैल, 2020
को हुई। करिश्मा सवाल करती हैं कि ’’भारत के सभी अस्पताल कोरोना को
देख रहे हैं क्या और बीमारियों का इलाज नहीं होगा, दूसरे बीमारी के मरीज को मरने
देंगे? 14 अप्रैल को पेट में दर्द हुआ मेरे पिता को सरकारी अस्पताल
लेकर गये, अस्पताल के बाहर वह तड़प रहे थे, कोई उनको देखने, छूने
नहीं आया। फिर 108 नं. पर कॉल करके बुलाया और एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल लेकर
गई। प्राइवेट अस्पताल लेकर गई, प्राइवेट अस्पताल गेट नहीं खोल
उसके बाद सरकारी अस्पताल लेकर गई वहां भी कोई नहीं देखा और जिला अस्पताल हरदोई में
ट्रांसफर किया गया। वहां भी पेट दर्द से तड़पते रहे, पेट सूज रहा था वहां भी कोई
डॉक्टर उनको छू नहीं रहा था। लखनऊ लेकर गये एम्बुलेंस से,
केजीएमयू
में एडमीट नहीं किया, कहा कि यहां केवल कोरोना के
मरीज भर्ती होंगे। उनको ख्ून की कमी हो गई थी। लखनऊ के केसर बाग में बलरामपुर
अस्पताल लेकर गये। वहां किसी तरह से एडमीट किया लेकिन कोई डॉक्टर देखने नहीं आया।
बाद में डॉक्टर देखने आया तो हमारे पिता इस दुनिया से जा चुके थे।’’ करिश्मा
कहती हैं कि इस विडियो को बनाने का मकसद यह है कि अब किसी के पापा नहीं मरें। मेरा
एक भाई 15 साल और बहन 17 साल की है, मुझे
उनको पालना है। मेरी मां पहले चली गई थी, अब पापा चले गये, हम
उनको पालेंगे, मैं डरती नहीं।’’ करिश्मा वर्मा का यह विडियो
बताता है कि स्वास्थ्यकर्मी कितने डरे हुए हैं कि मरीजों को छू तक नहीं रहे हैं।
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? क्या उनके पास समुचित मात्रा
में सुरक्षा उपकरण होते तो वे ऐसा करते? क्या कोरोना की मौतें कम करने के लिए हम दूसरे मरीजों की जान
के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं?
कोरोना मरीजों की हालत
प्रतिभा गुप्ता जो कि जी ब्लॉक जहांगीरपुरी में रहती हैं, जहां
पर कि कम्युनिटी ट्रांसमिशन के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। प्रतिभा गुप्ता ने अपनी
मां के साथ सोशल साईट पर एक विडियो के द्वारा मुख्यमंत्री,
दिल्ली
सरकार और प्रधानमंत्री भारत सरकार के नाम अपील जारी कर अपने पिता के लिए सहायता
मांग रही हैं। उनके पिता 16 अप्रैल की रात दो बजे दो मिनट
के लिए बेहोश हो गये तो उनको फोर्टिस अस्पताल शालीमार बाग ले गये, वहां
पर डॉक्टर ने कोरोना का टेस्ट किया तो वह पॉजेटिव आया। प्रतिभा कहती हैं कि हमसे
बिना पूछे पिता को एलएनजेपी अस्पताल में शिफ्ट कर दिया गया। 18
अप्रैल को शाम 8 बजे के करीब दो-तीन घंटे इंतजार करने के बाद उनको एडमिट किया
गया। उसके बाद अगले दिन 9 बजे उनको ब्रेक फास्ट मिला, जबकि
वह सुगर और ब्लड प्रेशर के मरीज हैं। 20 अप्रैल को सुबह 5
बजे उनका फोन आया कि उनको 102 डिग्री बुखार है। उन्होंने साथ
के लोगां और नर्सेज को कहा लेकिन वहां कोई रिस्पांड नहीं कर रहा है। उन्हें बोला
गया कि क्वारंटाइन के लिए नरेला लेकर जायेंगे, उसके लिए उन्होंने 9
घंटा इंतजार किया। रात में 1.30 बजे फोन आया कि अब देर हो गई
है तो कल लेकर जायेंगे और हमें नहीं मिलने दिया गया, उनका वहां पर बिल्कुल केअर नहीं
हो रहा है। वह फोन पर बोले कि हमको प्राइवेट अस्पताल लेकर चलो। वह बताई कि जो
समाचार में दिखाया जा रहा है और जो ग्राउण्ड रियल्टी है, वह अलग है।
सोनू नागर, अहमदाबाद सिविल अस्पताल के बाहर
25 कोरोना मरीजों के साथ कई घंटों से खड़ी रही। सोनू नागर बताती
हैं कि सुबह-सुबह उन लोगों को बताया गया कि टेस्ट कोरोना पॉजेटिव आया है उसके बाद
लोग चिंता में कुछ खाये-पीये नहीं, इसमें कई बुजुर्ग लोग भी थे।
उनको अस्पताल के दूसरे वार्ड में भर्ती करने के लिए कई घंटे तक भी कोई रिस्पांस
नहीं मिला और वह बाहर गेट पर खड़े रहे तो उन्होंने सोशल साईट का सहारा लिया। क्या
हम इसी तरह से कोरोना से जंग लड़ेंगे? लोगों से हम कब तक सोशल
डिस्टेंस (सोशल नहीं फिजिकल डिस्टेंस होना चाहिए) की बात करते रहेंगे। उन 69
प्रतिशत लोगों के लिए यह डिस्टेंस क्या मायने रखता है जो कि एक से दो कमरे में
पूरे परिवार के साथ रहते हैं?
शहादरा की ज्योति को राजीव गांधी अस्पताल के बाद मंडोली जेल
में बने क्वारंटाइन सेंटर में रखा गया है। जब वह मंडोली जेल के क्वारंटाइन सेन्टर
में आई और पंखा चलाया तो पूरा कमरा धूल से भर गया। जगह-जगह कबूतरों के पंख व बीट
फैल गये। ज्योति ने एक और मरीज के साथ मिलकर कमरे की सफाई की। इस सेंटर पर रहने
वाले सागर ने बताया कि वह 17 अप्रैल से यहां पर हैं उनके
लिए चादर, हैंडवॉश तक नहीं है। कमरे में जगह-जगह मिट्टी है और कबूतरों
के पंख पड़े हैं। क्या भारत में लॉक डाउन करके कोरोना महामारी से जंग लड़ा जा रहा
है। इसका असर दवा कम्पनियों पर भी देखने को मिल रहा है जैसे कि एशिया की दवा बनाने
का सबसे बड़ा केन्द्र हिमाचल प्रदेश की वदी में वोकहाट, यूएसवी फार्मा, सन
फार्मास्युटिकल्स जैसी 50 बड़ी दवा कम्पनियों ने कारखाने 12
अप्रैल से बंद कर दिए हैं। एबॉट, ग्लेनमार्क फार्मा की तीन
कम्पनियां 25-30 प्रतिशत क्षमता के साथ ही काम कर रही हैं। यूनिकेम
लैबोरेटरीज के तीन प्लांटस और मैक्लियोड जैसी कम्पनियां 35-45 प्रतिशत क्षमता के साथ ही काम
कर पा रही हैं। कोरोना टेस्ट के लिए नाक और मुंह दोनों से रेलोन के टुकड़े पर
सैम्पल लिया जाता है लेकिन जेएनएमसी अस्पताल में रूई के टुकड़ों पर यह सेम्पल लिया
जा रहा है। यही कारण है कि लॉक डाउन में भी करोना संक्रमित जिलों की संख्या बढ़
रही है। एक अप्रैल को 211 जिले कोरोना से प्रभावित थे 25
अप्रैल तक इनकी संख्या 429 हो गई।
भारत में स्वास्थ्य की स्थिति
वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा सूचकांक में 195
देशों में भारत का 57 वां स्थान है। 10,296
लोगों पर एक सरकारी एलापैथिक डॉक्टर है। तेरह हजारों लोगों पर एक बेड है। 32,500
लोगों पर एक वेंटिलेटर है। यह स्थिति इसलिए है कि भारत अपने स्वास्थ्य में खर्च
श्रीलंका और इंडोनेशिया जैसे देशों से भी कम करता है। भारत में स्वास्थ्य की हालत पहले से ही बहुत बुरी स्थिति
में था जिससे आम आदमी को इलाज नहीं मिलने के कारण असमय कॉल के ग्रास बन जाते थे।
कोरोना बीमारी ने सरकार को भी यह मानने पर मजबूर कर दिया कि भारत की स्वास्थ्य की
हालत अच्छी नहीं है। भारत को स्वास्थ्य सुविधाएं ठीक करने के लिए जीडीपी का कम से
कम 5-6 प्रतिशत खर्च करना होगा।
हार्वड विश्वविद्यालय के स्वास्थ्य विभाग के डीन, मिशेल
ए. विलियम्स के अनुसार ‘‘पिछले 30
वर्षों
के दौरान महामारियों की सालाना संख्या लगभग तीन गुना हो गई है। एक शोध के अनुसार ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि
अब इंसान एक-दूसरे से ज्यादा संपर्क में रहने लगे हैं। जानवरों से भी हमारी
नजदीकियां बीते सालों में बढ़ी है जो लगभग तीन-चौथाई नए संक्रामक रोगों के लिए
जिम्मेदार है। इस सदी में इंसान पहले से ज्यादा अलग-अलग देशें में घूम रहा है।’’ कोरोना
बीमारी जैसे कई फ्लू पहले भी हो चुके हैं और चीन में चार माह पहले यह बीमारी घातक
रूप में सामने आ चुकी थी तो क्या सरकारों को कोरोना जैसी महामारियों के लिए के लिए
वैक्सिन नहीं बनाया? इसके दो कारण हैं एक तो सरकार
का आम आदमी का परवाह ही नहीं है कि वह जीयेंगे या मरेंगे दूसरी यह है कि क्या इस
महामारी को और व्यापक बनाकर दवा कम्पनियां और सुरक्षा किट बनाने वाली कम्पनियों को
मोटा मुनाफा कमाने का मौका देना चाहती है? हम देख सकते हैं कि पीपीई किट
में किस तरह से चीन की कम्पनियां खराब गुणवत्ता वाले किट देकर भी कमाई कर रही हैं
और उन पर रोक लगाना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि हमारे पास और दूसरा कोई
साधन नहीं है। हम देख रहे हैं कि भारत में लॉक डाउन के एक माह बाद भी कोरोना
बीमारी से लड़ने की क्षमता लॉक डाउन के भरोसे ही है।
(लेखक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, CPR, से जुड़े हैं)