Thursday, February 19, 2015

मोदी = केजरीवाल

दिल्ली विधान सभा चुनाव : मोदी = केजरीवाल
- सुनील कुमार


दिल्ली का चुनाव परिणाम आ चुका है, आप पार्टी की सरकार बन चुकी है। इस चुनाव परिणाम से तीनों पार्टियां (भाजपा, आप, कांग्रेस) खुश हैं और दुखी भी हैं। भाजपा खुश है कि उसका ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा दिल्ली में सफल रहा। आप पार्टी की खुशी है कि उसको 95 प्रतिशत विधायकों के साथ 5साल तक शासन करने को मिल गया। कांग्रेस खुश है कि मोदी के विजय रथ को विराम लग गया। भाजपा दुखी है कि उसको शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी दुखी है कि वह अपना खाता भी नहीं खोल पाई। आप पार्टी इतनी भारी बहुमत से आयी है कि अब अपने वादे पूरे नहीं कर पाने का कोई बहाना भी नहीं बना सकती है। आप को इस तरह बहुमत में आना 8 माह पुरानी मोदी सरकार की याद को ताजा करता है। जिस तरह मोदी को पूर्ण बहुमत की उम्मीद नहीं थी, उसी तरह आप पार्टी को 67 सीट पाने की उम्मीद किसी को नहीं थी। दिल्ली की इस ऐतिहासिक जीत में मोदी सरकार के 8 माह का काम-काज मुख्य रहा है। मोदी ने सुशासन, भ्रष्टाचार, सुरक्षा और रोजगार को लेकर जो सपने दिखाये थे, वो 8 माह में हवा हवाई हो गये। उसकी जगह मोदी की विदेश यात्रा, उनके 10 लाख के सूट, उनका पूंजीपतियों के सामने नतमस्तक होेना आदि ही अखबार में छाये रहे। इसके अलावा पार्टी व सरकार में मोदी व अमित शाह का तानाशाह रवैया भी कुछ हद तक जिम्मेदार रहा।
भ्रष्टाचार
आम आदमी पार्टी की भ्रष्टाचार की राजनीतिक समझ बहुत कमजोर है। केजरीवाल एण्ड कम्पनी के लिए भ्रष्टाचार वही है जो सीधा (डायरेक्ट) घूस लिया जाता है। वो सरकारी कर्मचारी व पुलिस के घूस या कमीश्नखोरी तक को ही भ्रष्टाचार मानते हैं जो कि अप्रत्यक्ष (इनडायरेक्ट) लूट से बहुत कम है। दिल्ली में असंगठित क्षेत्र के 50 लाख ऐसे मजदूर हैं जिनको न्यूनतम वेतन नहीं मिलता है और ना ही किसी प्रकार का श्रम कानून उनके कार्यस्थल पर लागू किया जाता है। इन मजदूरों से न्यूनतम मजदूरी से आधे पर काम करवाया जाता है, जबरिया ओवर टाइम करवाया जाता है और कई जगह तो ओवर टाइम का पैसा भी नहीं दिया जाता है। इस तरह प्रत्येक मजदूर से हर माह 5 से 7 हजार रू. की लूट की जाती है। अगर प्रति मजदूर 6 हजार रू. की लूट मान कर चलें तो 50 लाख मजदूरों से प्रत्येक माह तीन हजार करोड़ की लूट इन कम्पनियों के द्वारा की जाती है। इस भ्रष्टाचार पर केजरीवाल सरकार कुछ नहीं बोलती है।
केजरीवाल घोषणा करते हैं कि जब मैं दिल्ली का 49 दिन के लिये मुख्यमंत्री था तो व्यापारियों पर छापे मारने की पाबंदी लगा दी थी क्योंकि अफसर जाकर घूस लेते थे। लेकिन वे एक भी कर्मचारी को पूरा वेतन नहीं दिला पाये। वे एक भी व्यापारी/फैक्ट्री मालिक पर इस लूट के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं किये। उनके मुख्यमंत्री काल में मुंडका और शाहपुर जाट में आग लगी जिनमें मजदूरों की मौत हुई, वे उन मजदूरों के परिवार वालों को न्याय नहीं दिला पाये।
नीयत
केजरीवाल हमेशा नीयत की बात करते हैं कि नीयत सही होने से सभी काम हो जायेगा। इस नीयत के बल पर वह शेर और बकरी को एक घाट पर पानी पिलाने का सपना दिखाते हैं। मैं आप पार्टी की नीयत जानना चाहता हूं। आप ने अपने घोषणा पत्र में 70 वादे किये हैं लेकिन उनके वादे में यह कहीं नहीं है कि दिल्ली में श्रम कानून लागू करायेंगे। जिन बिजली कम्पनियों की खाते की लूट की जांच करवाना चाहते हैं उनके ठेका मजदूरों को न्यूनतम वेतन तक नहीं मिलता है। ओवर टाईम तो उसमें लागू ही नहीं है। चाहे जितना घंटा काम करंे, कर्मचारियों को फिक्स पैसा ही मिलता है। आप पार्टी के वादे वहां नहीं दिखते हैं तो क्या यह मान लिया जाये कि आप पार्टी की नीयत ठीक नहीं है?
आप पार्टी के वरिष्ठ नेता राजनीतिक विश्लेषक योगेन्द्र यादव ने एक टीवी चैनल पर कहा कि हमारी लड़ाई वर्गीय संघर्ष नहीं है। ऐसा नहीं है कि हम अमीरों से छीन कर गरीबों को देने की बात कर रहे हैं। आप पार्टी चाह रही है कि दिल्ली की सत्ता अमीर और गरीब मिल कर चलायें। यह कैसे संभव है कि बाघ और बकरी साथ-साथ चले, बिना किसी को नुकसान पहुंचाये। अमीर व्यक्ति अमीर तभी तक रहता है जब वह दूसरों के हिस्से को लूटता रहता है। यानी लूटाने वाला कुछ नहीं बोले और लूटने वाले के साथ चले! इससे अधिक लूूटेरों की और क्या सेवा हो सकती है? यह सेवा हो भी क्यों नहीं,आप पार्टी के 67 विधायक में से 41 करोड़पति हैं और हाफ करोड़पतियों (50 लाख रू.से अधिक) की संख्या जोड़ दी जाये तो 48 विधायक हो जायेंगे। (लोकसभा में 82 प्रतिशत सांसद करोड़पति हैं, दिल्ली विधान सभा में 63 प्रतिशत विधायक करोड़पति हैं।)
मोदी केजरीवाल की समानताएं
केन्द्र की मोदी सरकार व दिल्ली की केजरीवाल सरकार में कई समानताएं हैं-
क) मोदी सरकार ने लोकसभा चुनाव में बड़े-बड़े वादे किये, लेकिन सत्ता में आने के बाद कोई भी वादा पूर्ण होता दिखाई नहीं दे रहा है। विधान सभा चुनाव में आप पार्टी ने भी बड़े-बड़े वादे किये हैं।
ख) सुरक्षा, सुशासन, रोजगार व भ्रष्टाचार का अंत दोनों पार्टियों के मुख्य वादे रहे हैं।
ग) दोनों ने मजदूरों के मुद्दें पर कुछ नहीं कहा। ठेकेदारी और निजीकरण के मुद्दों पर दोनों की एक राय है।
घ) दोनों ने अपने को व्यापारी बताया। एक ने कहा कि मैं गुजराती हूं हमारे खून में व्यापार है तो दूसरे ने अपने को तो उस जाति से ही जोड़ दिया। दोनों व्यापारी वर्ग (पूंजीपति वर्ग) की सेवा करना चाहते हैं।
च) दोनों ईश्वरवादी हैं, दोनों को ईश्वर में पूरा भरोसा है। इस तरह के लोग यह मानते हैं कि जो हो रहा है वह तो होना ही है जैसा कि गीता में भी लिखा हुआ है। कर्म किये जाओ, फल की चिंता मत करो। यही उपदेश मोदी और केजरीवाल भी देने की कोशिश करते हैं। इसलिए एक भाग्य की बात करते हैैं तो दूसरा हर बात का जबाब नीयत बता कर देते हैं।
छ) दोनों का टैक्नोलॉजी पर बहुत जोर है, हर चीज को वे टैक्नोलॉजी से जोड़ना चाहते हैं- जैसे कि भारत की सभी जनता के पास कम्प्यूटर और इंटरनेट हो गया है, सभी बहुत अच्छी अंग्रेजी जानते हैं। अभी तक तो ये अपनी पार्टी के वेबसाईट को हिन्दी में नहीं कर पाये हैं। लेकिन भारत की 2 प्रतिशत जनता, जो अंग्रेजी जानती है, के लिए सब कुछ कम्प्यूटर पर लाकर पारदर्शिता बनाने का ढोंग करते हैं।
ज) एक का नारा है ‘सबका साथ, सबका विकास’ तो दूसरा ‘स्वराज’ की बात करते हैं। ‘सबका साथ, सबका विकास’ में मोदी दावा करते हैं कि सभी को साथ लेकर चलना है, संघीय ढांचे को मजबूत बनाना है। जो व्यक्ति पार्टी के लोगों को साथ लेकर नहीं चल पाता, वह देश की जनता को कैसे लेकर चल पायेगा। हम लोग 8 माह के शासन में यह देख रहे हैं। दूसरा ‘स्वराज’ और मोहल्ला कमिटी बनाकर हाशिये पर पड़े लोगों को भी साथ लेने की बात करते हैं। आप पार्टी की मोहल्ला कमिटी में वही लोग शामिल हो रहे हैं जो कि चुनाव के वक्त उनको वोट दिये हैं। जो उनसे पैसे लिये हैं और उनका दारू पीये हैं वही उनके मोहल्ला कमिटी में शामिल होने वाले हैं। इससे हम समझ सकते हैं कि सबका साथ, सबका विकास’ व ‘स्वराज’ का नारा कितना खोखला है।
दिल्ली चुनाव में साम-दाम-दण्ड-भेद का प्रयोग तीनों पार्टियों द्वारा किया गया है। सभी पार्टियांे ने पैसे, साड़ी, दारू बांट कर वोट पाने की कोशिश की है। इससे यही लगता है कि ये उम्मीदवार पैसे समाज सेवा के लिए नहीं, निवेश के तौर पर खर्च करते हैं। सत्ता में आने के बाद खर्च (निवेश) किये गये पैसे को सूद समेत वापस लाने की कोशिश हमेशा से की जाती रही है। सत्ता में जो भी आयंे, वे एक खास वर्ग के लोगों की सेवा ही करंेगे। जिस तरह केन्द्र में मोदी सरकार के आने के बाद जनता की समस्याएं बढ़ी ही हैं, उसी तरह केजरीवाल की सरकार बनने के बाद आम आदमी की हालत दिन प्रति दिन खराब ही होगी।

Monday, February 16, 2015

यही पैगाम हमारा

इंसान का इंसान से हो भाईचारा
यही पैगाम हमारा
यही पैगाम हमारा

नये जगत में हुआ पुराना ऊँच-नीच का किस्सा
सबको मिले मेहनत के मुताबिक अपना-अपना हिस्सा
सबके लिए सुख का बराबर हो बँटवारा
यही पैगाम हमारा
यही पैगाम हमारा

हरेक महल से कहो की झोपड़ियों में दिये जलाये
छोटों और बड़ों में अब कोई फ़र्क नहीं रह जाये
इस धरती पर हो प्यार का घर-घर उजियारा
यही पैगाम हमारा
यही पैगाम हमारा

इंसान का इंसान से हो भाईचारा
यही पैगाम हमारा
यही पैगाम हमारा

Monday, February 9, 2015

दिल्ली के सिहंासन पर किंग या क्विन? जनता पिजड़े में!

- सुनील कुमार

दिल्ली के चुनाव हो चुके है। 70 सीट के लिए 673 उम्मदीवारों के ‘भाग्य’ का फैसला दिल्ली की 1.33 करोड़ मतदाताओं में से 67 प्रतिशत ने ‘मत’ देकर किया। चुनावों में खोखले वादों से जनता को लुभाने की कोशिश की गई। चुनाव के नतीजे जो भी आये, मुख्यमंत्री के सिंहासन पर किंग हो या क्विन,उससे जनता को कोई लाभ होने वाली नहीं है। इस चुनाव में भी जीत उसी की होगी जो अभी तक जीतता आया है। इस चुनाव मंे जितेगा वही, जो दिल्ली और देश को लूटना चहता है और हार उसकी होगी, जो दो जून के रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है। सभी पर्टियां जनता को लूट कर उसमें से एक छोटा हिस्सा देकर जनता को बरगलाने में लगी हुई थी। जनता के हक को मार कर जनता को भीख दी जा रही थी और कौन कितना भीख देगा, बताने की होड़ लगी हुई थी।

महिला सुरक्षा की बात तीनों पार्टियांे (कांग्रेस, बीजेपी और आप) ने बहुत जोर-शोर से की है - हम सी.सी. टीवी लगायेंगे, महिला कमांडो बनायेंगे,महिलाओं को बसों में सुरक्षा देंगे, महिलाओं को सशक्त बनायेंगे आदि, आदि। जब ये तीनों पार्टियों ने मिलकर 19 महिलाओं (भाजपा 8, आप 6, कांग्रेस 5) को उम्मीदवार बनाया तो इनका महिला सशक्तिकरण का दावा खोखला नजर आया। दिल्ली में महिला उम्मीदवारों की संख्या 59 लाख से अधिक है,लेकिन महिला सशक्तिकरण की बात करने वाली पार्टियों के पास योग्य महिला उम्मीदवार नहीं हैं। क्या महिलाओं को घरों में रखकर महिला सशक्तिकरण का नारा लगाया जायेगा? महिलाओं को 50 प्रतिशत, 33 प्रतिशत या 15 प्रतिशत भी सीट नहीं दी गई। इस बार का ‘गणतंत्र दिवस’ महिला सशक्तिकरण के तौर पर मनाया गया। महिला सशक्तिकरण की बात तो करेंगे लेकिन महिलाओं को संसद-विधानसभाओं में उनका प्रतिशत नहीं देंगे। यह कैसा महिला सशक्तिकरण है? हाल के दिनों में दिल्ली के अंदर कई महिलाओं की बलत्कार कर के हत्या की गई है और उनके अंगों को काट-काट कर फंेका गया है - यहां महिलाओं की किस तरह की सुरक्षा दी जा रही है?

दिल्ली की बस्तियों में 55-60 लाख लोग रहते हैं। इस वोट बैंक को अपनी तरफ आकर्षित करते हुए सभी पार्टियों ने ‘जहां झुग्गी वहां मकान’ का नारा दिया। इन पार्टियों के पास सही में इन बस्तिवालों के लिए अपना कोई विजन नहीं है। उन्हें यह पता नहीं है कि जनता किस तरह की दिक्कतों में रह रही है, उसको किस तरह से हल किया जायेगा। उनके पास इन बस्तिवालों के लिए कोई विजन दस्तावेज या चुनावी घोषणापत्र में नहीं है। महिलाएं खुले में सड़कों के किनारे शौच करती हैं, बस्तियों में शौचालय नाममात्र के हैं। बस्तियों में गन्दगी फैली हुई है, शिक्षा-स्वास्थ्य की कोई व्यवस्था नहीं है। अधिकांश बस्तियों में पीने के लिए पानी नहीं है, लोगों को दूर-दूर जाकर पीने के लिए पानी की व्यवस्था करनी पड़ती है या घंटों टैंकरों को इंतजार करना पड़ता है, फिर कहीं जाकर पीने का पानी मिल पाता है। दिल्ली के 0.5 प्रतिशत (आधे प्रतिशत) जमीन पर झुग्गियों में करीब 55-60 लाख लोग रहते हैं। क्या ‘जहां झुग्गी जहां मकान’ के नारे पर इतने लोगों के लिए इतनी ही जमीन मिलेगी? क्या लोगों को ऐसे ही पिजड़े में रहने के लिये मजबूर किया जायेगा? कॉलोनियों के नियमितीकरण की बात की गई, लेकिन उस नियमितीकरण में जो कानूनी दाव पेंच हैं उसको सरकार सुलझाना नहीं चाहती है। वह लोगों को मूंगेरी लाल के हसीन सपने दिखा रही है।

सभी पार्टियों ने अपने को साफ सुथरी छवि वाली बताईं। प्रधानमंत्री ने यहां तक कह डाला कि स्पेशल कोर्ट बनाये जायेंगे और दागी, क्रिमनल लोगों को संसद, विधान सभाओं से बाहर किया जायेगा। इसी तरह के दावे आप पार्टी और कांग्रेस भी करती रहीं कि वह दागियों, भ्रष्टाचारियों को टिकट नहीं देंगे। चुनावों मंे ठीक इसका उल्टा हुआ। इस बार दिल्ली के 70 सीटों के लिए 673 उम्मीदवार थे, जिनमें से 117 पर अपराधिक मामले दर्ज हैं और 74 उम्मीदवारों पर गंभीर मामले दर्ज हैं। आप पार्टी के 70 में से 14, भाजपा के 68 में से 17 व कांग्रेस के 70 में से 11 उम्मीदवारों पर अपराधिक केस दर्ज हैं। ‘साफ-सुथरी’ व ‘देश के भाग्य बदलने वाली’ इन पार्टियों ने जितने अपराधिक उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, उसके आधे महिलाओं को भी अपनी-अपनी पार्टी का उम्मीदवार नहीं बनाया। क्या इसी तरह अपराधिक छवि वालोें को टिकट देकर साफ-सुथरी राजनीति की जा सकती है? जनता जहां दो जून की रोटी के लिए संघर्ष कर रही है वहीं करोड़पति उम्मीदवारों की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है। 2013 के विधान सभा चुनाव में 33 प्रतिशत करोड़पति उम्मीदवार थे वहीं इस बार के चुनाव में 34 प्रतिशत करोड़पति उम्मीदवार थे।

दिल्ली में खासकर तीनों पार्टियों के उम्मीदवारों ने साम-दाम-दण्ड-भेद का सहारा लिया। वोट के लिए दारू, साड़ी व पैसे बांटे गये। मुद्दों की बजाय व्यक्ति केन्द्रित चुनाव का प्रचार हुआ। सभी एक दूसरे पर कीचड़ उछालते रहे। प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया में करोड़ांे रू. देकर प्रचार किया गया, बड़े-बड़े होर्डिंग से दिल्ली को पाट दिया गया। चुपके से पार्टी फंड के नाम पर लाखों-करोड़ों में चंदा लिया गया। किसी ने चंदा बताया नहीं तो किसी ने अपनी वेबसाईट पर डालकर अपने को पाक-साफ दिखाने की कोशिश की। कोई अपने को भाग्यशाली बताया तो कोई अपने आप को ईमनदार बताने की कोशिश की। लेकिन एक बात पर सभी सहमत दिखे कि व्यापारियों (पूंजीपतियों) की सेवा करनी है, उनके हितों पर आंच नहीं आने दी जायेगी। जो भी चुनावी वादे किये गये उसे पूरा कैसे किया जायेगा, इस पर सभी पर्टियों का दृष्टिकोण एक था कि यह नहीं बताना है।

कोई भी पार्टी निजीकरण का विरोध नहीं कर रही थी। सभी पार्टियां उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण के नीतियों के समर्थक रही हैं जो कि जनता की बदहाली, बेरोजगारी के लिए जिम्मेदार हैं। जनता को उन्हीं नीतियों का समाना करना पड़ेगा जिससे कि बेकारी-लाचारी बढ़ेेगी। जनता को उन्हीं पिजड़े में रहने पड़ेंगे जिस में वह रह रही हैे, उन्हीं ठेकेदारांे, कम्पनी मालिकों के रहमों करम पर जीना होगा, जिन पर जी रही है। इसमें कोई बदलाव आने वाला नहीं है। महिलाओं को घरों के अन्दर ही रखकर सुरक्षा दी जायेगी। जीत किसी भी दल की हो, हार तो जनता की होकर रहेगी। झंडा बदल जायेगा, डंडा बदल जायेगा लेकिन चाबूक वही रहेगी। जनता को अपने हक-अधिकारों के लिए लड़ना ही पड़ेगा।

Saturday, February 7, 2015

गण से दूर होता गणतंत्र

सुनील कुमार

भारत का संविधान में अंकित है कि- ‘‘हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंात बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर इस संविधान सभा को अंगीकृत, अधनियमित और आत्मविश्वास करते हैं।’’

भारत के संविधान निर्माण के बाद लगातार उसमें गिरावट आ रही है। भारत जब अपना 66 वां गणतंत्र दिवस मना रहा है तो मीडिया में यह चर्चा हो रही है कि मुख्य अतिथि की सुरक्षा की स्थिति क्या होगी, कहां ठहरेंगे, क्या खायेंगे, कैसे हाथ मिलाया तो कैसे गले मिले, किस से कितने देर बात की आदि, आदि। इस पर किसी तरह की चर्चा नहीं हो रही है कि संविधान ने जो अधिकार जनता को दिया है वह मिल रहा है कि नहीं। गणतंत्र दिवस के पहले ही दिल्ली को किले में तब्दील कर दिया गया था। दिल्ली की आम जनता को सड़क, मेट्रो, दफ्तर, बाजार इत्यादि जगहों पर भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। आम जनता को कभी यह महसूस नहीं हुआ कि गणतंत्र आम लोगों के लिए है। हमारे यहां गण को दूर करके गणतंत्र मनाने की परम्परा चल रही है।

भारत का संविधान भारत को प्रभुत्व सम्पन्न कहता है। लेकिन यह कैसा प्रभुत्व है जब आपका मुख्य अतिथि आता है तो आप के बनाये हुए नियम को तोड़ता है और आप उसके हर फैसले को सिर झुकाकर मानते हैं। भारत की परम्परा रही है कि गणतंत्र के मुख्य अतिथि भारत के राष्ट्रपति की गाड़ी में साथ-साथ आयेंगे, लेकिन ओबामा जी इस नियम को तोड़ते हुए अपनी गाड़ी में आये। ओबामा के अगारा जाने के कार्यक्रम के कारण पूरे अगारा के लोगों को तीन घंटे के लिए बंधक बनाने का प्रोग्राम बन चुका था। अगारा का कार्यक्रम रद्द हो गया, नहीं तो तीन घंटे में कई लोगों की जानें भी जा सकती थी, क्योंकि मोबाईल टावर बंद कर दिये जाते, आवागमन पर रोक होती। इस तरह के बंधन से किसी को अचानक दिल के दौड़े पड़ने या डिलेवरी जैसी घटना में समय से अस्पताल पहुंचाना कठिन हो जाता ओबामा की सुरक्षा में लगे एक अधिकारी के अनुसार- ‘‘मैं पिछले 30 साल से कार्यरत हूं और इससे पहले कई उच्चस्तरीय विदेशी प्रतिनिधिमंडल के लिए सुरक्षा बंदोबस्त कर चुका हूं। अन्य देशों की सुरक्षा एजेंसियो में मेरे कई अच्छे दोस्त हैं लेकिन अमेरिकी खुफिया विभाग के एजेंटों का बर्ताव बहुत रूखा और दबंग किस्म का है। इससे यह पता चलता है कि ये हमें महत्व देना नहीं चाहते। अमेरिकी खुफिया विभाग के एजेंट हमारी सभी सुरक्षा तैयारियों में हस्तक्षेप कर रहे हैं, स्वयं को अधिक सक्षम और निपुण दिखाने की कोशिश कर रहे हैं।’’ भारत जब इतना दबाव में काम कर रहा है तो यह सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न देश कैसे हुये? एक व्यक्ति के लिए हम एक शहर को ही बंधक बना रहे हैं। लेकिन भारत का शासक वर्ग इतने से खुश हैं कि दुनिया का सबसे ताकतवर देश का शासनाध्यक्ष आया हुआ है।


भारत के संविधान में जो भी अधिकार आदिवासियों, दलितांे, मजदूरों, किसानों को दिया गया है उसको एक-एक कर के छिना जा रहा है। संविधान में दर्ज अधिकारों को पाने के लिए आज लोगों को आंदोलन करना पड़ रहा है। संवैधानिक अधिकार देने के बदले आंदोलनरत भारत की जनता को लाठी और गोलियां की सौगात दी जा रही हैं, फर्जी केसों में डाल कर उनके अधिकारों का हनन किया जा रहा है। खासकर, आदिवासियों को जो अधिकार संविधान ने दिया है उसकी खुलेआम मजाक उड़ाई जा रही है, उनके जंगल और जमीन को पूंजीपतियों के हवाले किया जा रहा है। महिलाओं की यौनिक हिंसा दिनों-दिन बढ़ती जा रही है, यहां तक कि कानून के रखवाले भी यौनिक हिंसा कर रहे हैं। इस संविधान के रखवालों द्वारा महिला कैदी के गुप्तांगों में पत्थर डालने वाले पुलिस अधिकारियों को मेडल देकर सम्मानित भी किया जाता है। श्रम कानूनों में बदलाव कर मजदूरों के अधिकारों को छीना जा रहा है और जब वे अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाते हैं तो उनको जेलों में डाल दिया जाता है। पिछले साल रेहड़ी-पटरी कानून बना था, जिससे देश में कुल करीब 4 करोड़ के आस-पास लोगों को फायदा होना था। लेकिन वह कानून दिल्ली में भी लागू नहीं हो पाया। गणतंत्र दिवस की सबसे ज्यादा मार इन्हीं दुकानदारों पर पड़ा- जो रोज कमाते-खाते हैं। जनवरी के दूसरे सप्ताह से ही इनकी दुकानों को बंद करा दिया गया। लाजपत नगर मार्केट में 1000 से अधिक रेहड़ी-पटरी दुकनदार हैं जो प्रति सप्ताह जगह के हिसाब से पुलिस को 200 से लेकर 1000 रू. तक देते हैं। इसके अलावा वे एमसीडी को 1500 रु. प्रति माह देते हैं। अपनी गाढ़ी कमाई में से पैसा देना भी उनको काम नहीं आया। उनको पुलिस परेशान कर रही है, पकड़ कर ले जा रही है और झूठे झगड़े के केस में फंसा कर जेल में डाल रही है। फाईन दे कर जब वे लोग बाहर आ रहे हैं तो पुलिस धमका रही है कि 26 जनवरी तक दुकानें मत लगाना। ये रोज कमाने-खाने वाले लोग हैं, अब इनके सामने रोटी की समस्या आ गई है। उनको डर है कि 26 जनवरी के बाद भी दुकान नही लगी तो बच्चों की पढ़ाई समाप्त हो जायेगी। क्या इन लोगों का भी इस गणतंत्र में कोई अधिकार है?

गणतंत्र के रक्षक ऐसे हैं जो किसी भी असहमति की आवाज को बर्दाश्त नहीं करते हैं। गण की बात छोड़ दीजिये, अब तो तंत्र की असहमति की आवाज भी नहीं सुनी जा रही है। यही कारण है कि गणतंत्र दिवस के परेड में पश्चिम बंगाल की झांकी नहीं दिखायी गई। पश्चिम बंगाल की झांकी ममता बनर्जी द्वारा चलाई जा रही ‘कन्या श्री’ योजना पर थी जो कि मोदी के ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना से मिलती है। इसलिए इस झांकी को परेड में शामिल नहीं किया गया।

भारत के प्रथम राष्ट्रपति ने भारतीय गणतंत्र के जन्म के अवसर पर कहा था- ‘‘हमें स्वयं को आज के दिन एक शांतिपूर्ण किन्तु एक ऐसे सपने को साकार करने के प्रति पुनः समर्पित करना चाहिए, जिसने हमारे राष्ट्रपिता और स्वतंत्रता संग्राम के अनेक नेताओं और सैनिकों को अपने देश में एक वर्गहीन, सहकारी, मुक्त और प्रसन्नचित्त समाज की स्थापना के सपने को साकार करने की प्रेरणा दी। हमें इस दिन यह याद रखना चाहिए कि आज का दिन आनन्द मनाने की तुलना में समर्पण का दिन है- श्रमिकों और कामगारों, परिश्रमियों और विचारकों को पूरी तरह से स्वतंत्र, प्रसन्न और सांस्कृतिक बनाने के भव्य कार्य के प्रति समर्पण करने का दिन है।’’ राजेन्द्र प्रसाद की बात क्या सच होती दिख रही है? यहां तो मेहनतकश जनता को सम्मान देना तो दूर की बात है, उनके साथ इन्सान जैसा व्यवहार नहीं किया जाता है। वर्गहीन समाज की जगह संसद में भी करोड़पतियों-अरबपतियों के साथ-साथ क्रिमनलों (जिन पर बलात्कार, कत्ल व दंगे जैसे संगीन अपराध दर्ज हैं) की संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। राजनीति में कुछ परिवारों का वर्चस्व बढ़ा है। बापू को मारने वालों को देशभक्त बताया जा रहा है। संसद, विधान सभाओं में हंगामा, मार-पीट, पोर्न साईट देखने की घटनांए हो रही हैं। अध्यादेश लाकर जनता के उपर कानून थोप दिया जा रहा है। गणतंत्र इनके लिए समर्पण का नहीं, आनन्द मनाने का दिन है। गणतंत्र दिवस में अगली पंक्ति में बैठने वाले अपने को गर्वानित महसूस करता है और बोलता है कि अपना-अपना भाग्य है। इनमें जनता के सेवक नहीं, सम्राट दिखाने की लालसा होती है। कार से उतरने के बाद बाराक ओबामा बारिस से बचने के लिए जहां खुद छतरी हाथ में लिये थे, वहीं भारत के प्रधान सेवक के पीछे एक सेवक छतरी लेकर खड़ा था।

भारत का संविधान जो लिखा गया था, उसको 66 वर्ष होते-होते शासक वर्ग ने खारिज कर दिया है और वह अपने अघोषित संविधान पर काम कर रहा है जिसमें से गण को गायब कर गण विरोधी तंत्र को मजबूत बनाया जा रहा है।

सैफई का समाजवाद

सुनील कुमार

सैफई महोत्सव की शुरूआत 1997 में स्व. रणवीर सिंह यादव ने किया था। 2002 में उनकी मृत्यु के पश्चात् उनको याद करते हुए हर वर्ष 26 दिसम्बर से 8 जनवरी तक सैफई महोत्सव का आयोजन किया जाता है। यह आयोजन पिछले साल सुर्खियों में रहा जब उ.प्र. में दंगे प्रभावित लोग ठंड में मर रहे थे और सैफई का आयोजन चल रहा था। इस साल यह राष्ट्रीय मीडिया में मुख्य खबर नहीं बन पाई। यह महोत्सव सरकारी आयोजन नहीं माना जाता है लेकिन इस आयोजन में जिस तरह से 14 दिन पूरा शासन-प्रशासन लगा रहता है उससे तो यही लगता है कि यह सरकारी आयोजन ही है। 2013-14 के आयोजन में मीडिया में 300करोड़ रू. खर्च होने की बात बताई गई थी जबकि मुख्यमंत्री ने 1 करोड़ रु. खर्च होने की बात कही थी। सैफई में उ.प्र. के मुख्यमंत्री सहित दर्जनों मंत्री डेरा जमाये रहते हैं। प्रदेश में ठंड से सैकड़ों लोगों की जानें जा चुकी हैं। इटावा जनपद में जिस दिन सैफई आयोजन की शुरूआत हुई उसी दिन इसी जनपद के महेन्द्र कुमार की ठंड लगने से मौत हो गई। महेन्द्र खेत में पानी लगाने गए थे जहां पर वह ठंड की चपेट में आ गये। अपने को मजदूर-किसानों की हितैषी कहने वाली सपा सरकार, जिनकी पार्टी का नाम समाजवाद पार्टी है और लाल-हरा रंग के झंडा उठाई हुई सत्ता में काबिज हैं, उनको इस मौत से कुछ लेना देना नहीं रहा। सैफई महोत्सव को सफल बनाने के लिए जया बच्चन व आजम खां बालीवुड के कलाकारों को सैफई भेजने में दिन-रात लगे हुए थे।

सैफई महोत्सव के उद्घाटन में मुलायम सिंह यादव ने कहा: ‘‘आयोजन से ग्रामीण क्षेत्रों की सभ्यता, संस्कृति बढ़ती है। लोक कला व संस्कृति के प्रोत्साहन के लिये ही सैफई महोत्सव किया जाता है। बड़े कलाकार मुंबई व लखनऊ के लोगों को ही देखने को मिलते हैं। सैफई महोत्सव में किसान-मजदूर व ग्रामीण छात्र-छात्राओं को भी बड़े कलाकारों को देखने का मौका मिलता है। सैफई के नाच-गाने की आलोचना की जाती है। क्या ग्रामीण क्षेत्रों के किसान-मजदूर नाच-गाना नहीं देख सकते हैं? महोत्सव में लोक गीतों के माध्यम से लोगों में मेल-मिलाप बढ़ेगा।’’ मुलायम सिंह ने उपस्थित छात्रों से अपील की कि वे ‘‘शिक्षा पर ध्यान दें और आगे चलकर जया बच्चन जैसा अपना नाम देश में रोशन करें।’’


मुलायम सिंह जी, यह बात सही है कि मनोरंजन करने का अधिकार ग्रामीण क्षेत्र के लोगों का उतना ही है जितना शहरी क्षेत्र के लोगों का। लोक गीतों की जगह बालीवुड, हालीवुड के गानों का बोल बाला है। सैफई महोत्सव में मोनिका बेदी, मल्लिका सेरावत से लेकर चारू लता तक के शो होते हैं। इसमें ‘मुन्नी बदनाम हुई’ से लेकर ‘तेरी चिकनी कमर पर मेरा दिल फिसल गया’ जैसे गाने गाये जाते हैं। यह किस लोकगीत के अन्दर आता है? इससे आप युवाओं में किस तरह की संस्कृति को पैदा कर रहे हैं? आप के महोत्सव में अन्तिम दिन बालीवुड नाइट मानाया जाता है जिसमें मुम्बई से दर्जनों अभिनेता, अभिनेत्री बुलाये जाते हैं। इनको देखने के लिए भीड़ इतना बेकाबू हो जाती है कि पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ता है। सैफई में चार्टड प्लेनों का तांता लगा रहता है। इन 14 दिनों में लगता है कि उ.प्र. सरकार सैफई से ही चल रही है। जिस जया बच्चन का उदाहरण आप छात्रों के सामने दे रहे हैं वैसे ही लोग बालीवुड को बढ़वा दे रहे हैं । इससे लोकगीतों या लोककला को प्रोत्साहन कैसे मिलेगा? क्या आपके पास भगत सिंह, चन्द्रशेख आजाद, रामप्रसाद विस्मिल के उदहारण नहीं मिले? आप जयप्रकश, लोहिया के विचारधारा को मानने वाले हैं! क्या उनका उदाहरण आप छात्रों को नहीं दे सकते थे? आप जया बच्चन का उदाहरण इसलिए दिये ताकि आप उसी बालीवुड की पश्चिमी संस्कृति को अपना चुके हैं। यही कारण है कि आप अपने जन्म दिन पर ब्रिटेन से मंगाई हुई बग्घी पर बैठेते हैं, 75 फीट और400 किलो वजन का केक काटते हैं। क्या यही विचारधारा जयप्रकाश और लोहिया की थी? उ.प्र. में सबसे योग्य आपका ही परिवार है जिससे 5 सांसद, मुख्यमंत्री और मंत्री हैं? यह तो अधिकार प्रदेश की जनता को भी है लेकिन उ.प्र. की राजनीति पर तो अपके परिवार का पैतृक अधिकार बन गया है जिसके कारण भाई, भतीजा, बहु, नाती-पोते ही लोकसभा, विधानसभा में आ रहे हैं।

डी एम, एस पी सहित तामम अधिकारी व हजारों संख्या में पुलिस बल की तैनाती सैफई में रहती है और प्रदेश की सुरक्षा....! इटावा सैफई का जिला हेडक्वार्टर है। वहां पर दो रिपोर्टर, जो कि सैफई महोत्सव कवरेज करने गये थे, उनको चाणक्य होटल के पास मारपीट कर लूट लिया जाता है तो बाकी जगहों की बात ही छोड़ दीजिये। सैफई में पुलिस हथियारों की प्रदर्शनी लगाई गई थी, जिसको देख मुख्यमंत्री ने सराहना की और निर्देशित किया कि इस तरह की प्रदर्शनी भविष्य में और जगहों पर लगाया जाये। मुख्यमंत्री ने पुलिस को आधुनिक बनाने के लिए किसी भी संसाधन की कमी नहीं आने का आश्वासन भी दिया। मुख्यमंत्री जी, पुलिस को आधुनिक बनाना अच्छी बात है। लेकिन यह आधुनिकीकरण किसके लिये किया जायेगा? क्या पुलिस आधुनिक होकर और तेजी के साथ अपराधियों का साथ देगी और महिलाओं के साथ बलात्कार करेगी? अच्छा होता कि आप हथियार प्रर्दशनी की जगह पुलिस को मानवीय दृष्टकोण से काम करने के लिए कैम्प लगाते जिसमें वे अपने कर्तव्य का पालन करना सीखते।

जैकलीन को 3 मिनट के परफार्मेंस देने के लिए 75 लाख रु. देने के बजाय सड़कों पर अलाव जलाते, रैन बसेरा बनाते तो कुछ लोगों की जिन्दगी ठंड से बचायी जा सकती थी। पुलिस,अधिकारी, मंत्री जिस तेजी से ड्युटी बजा रहे थे अगर वे इतनी तत्परता अपने कामों में दिखलाते तो लोगों की समस्याएं कुछ कम होती, अपराध कम होते। लेकिन आप का उ.प्र. बालिवुड का प्रदेश और आपका समाजवाद आपके वंशवाद के लिए मौजवाद बन चुका है।

‘पीके’: पाखंड खंडन

सुनील कुमार

‘आजादी के ठीक 50 साल पहले स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि भारत के लोग 50 साल के लिए अपने देवी देवताओं को भूल जाएं।’ - नरेन्द्र मोदी, सिडनी (आस्ट्रेलिया)

दुनिया भर में विचारों, संवेदनाओं को प्रकट करने व विरोधियों को जवाब देने के लिए लेखन, नाटक, गाने इत्यादि कलाओं का इस्तेमाल किया जाता है। पीके फिल्म द्वारा विभिन्न धर्मों के पाखंडियों को जबाब देने की कोशिश की गई है। एक ही भगवान का संतान बताने वाले सभी धार्मिक संगठन अलग-अलग धर्म के ठेकेदार बने बैठे हैं। अपने आप को हिन्दू धर्म के ठेकेदार और राष्ट्र भक्त कहने वाले विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल जैसे उन्मादी संगठन पीके के विरोध में तोड़-फोड़ कर रहे हैं। इनकी ‘रष्ट्र भक्ती’ वैसी ही है जैसे फिल्म में ब्लैक टिकट बेचने वाले बन्देमातरम तो बोलता है लेकिन अपने ही देश की लड़की को कुछ पैसे कम होने पर टिकट नहीं देता है। इनकी देश भक्ति में मुनाफे का पूरा ख्याल रखा जाता है। नरेन्द्र मोदी आस्ट्रेलिया में बोल तो सकते हैं कि देवी-देवताओं को भूल जाओ लेकिन जब उनके बिरादराना संगठन भारत में धर्म के ठेकेदार बनकर तोड़-फोड़ करते हैं तो चुप रहते हैं।


फिल्म में टिकट नहीं मिलने के बाद लड़की (जगत जननी साहनी) अकेलापन महसूस करती है जिसका साथ पाकिस्तानी लड़का सरफराज देता है। इसे विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठन लव जेहाद कहते हैं। तपस्वी जिस तरह से साहनी के परिवार पर अपना प्रभाव जमा रखा है उसी तरह आसाराम बापू ने पीड़ित लड़की के परिवार वालों पर जमा रखा था। तपस्वी इन्टरनेट आरती, आनलाईन प्रश्न, कोरियर से प्रसाद भेजना इत्यादि करते हैं; उसी तरह आज हमें टीवी चैनलों पर सत्संग, जागरण व सुबह-सुबह समाचार चैनलों पर भी ज्योतिषी बैठे मिल जाते हैं। यहां तक कि कई चैनलों पर बाबा अपनी अंगूठी और ताजिब बेचते नजर आते हैं। तपस्वी की स्टोरी दिखाने पर जिस तरह से तपस्वी के चेलों ने न्यूज चैनल के मालिक पर हमला किया; क्या उसी तरह डेरा सच्चा सौदा पर पत्रकार की हत्या कराने का मामला दर्ज नहीं है? या आसाराम बापू के खिलाफ गवाही देने वालों की हत्या नहीं हुई है? तपस्वी जिस तरह से पीके के रिमोट को शंकर के डमरू का टूटा हुआ अवशेष बताता है और झूठ बोलता है कि वह हिमालय पर्वत में तपस्या कर के लाया है; क्या उसी तरह रामपाल रिमोट कंट्रोल से कुर्सी को संचालित कर चमत्कार नहीं करते थे? तपस्वी के रांग नम्बर के पोल खुलने के बाद फोटो, दवाईयां, अगरबत्ती व तेल बिकना बंद हो जाता है। तपस्वी की तरह क्या रामदेव दुकानदारी नहीं करते हैं? क्या इसी डर से रामदेव पीके फिल्म का विरोध कर रहे हैं कि किसी दिन ऐसा उनके साथ भी हो सकता है? पीके के सवाल उठाने पर तपस्वी जिस तरह से उसे एक धर्म विशेष से जोड़कर उसका नामकरण परवेज खान या पासा कमाल कहता है ठीक उसी तरह से दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके मंे मैंने जब जाना शुरू किया तो हमें सम्प्रदायिक ताकतों द्वारा कहा गया कि तुम्हारा नाम अजहर है। साधु सोने की चेन चमत्कारी रूप में निकाल कर दिखा रहा है और एक व्यक्ति उसको रांग नम्बर बता रहा है; उसी तरह से साई बाबा ने सोने की चेन निकालते हुए पकड़े जाने के बाद से अपने कार्यक्रम में विडियो कैमरा, फोटो कैमरा ले जाने पर पाबंदी लगा दी थी।


पुलिस के ड्रेस मिलते ही उसे फ्री में खाना मिलने लगता है। क्या ऐसा नहीं होता है? दिल्ली में 28 दिसम्बर को जब पुलिस वालों को फ्री की फ्राई मछली नहीं मिली तो 9 माह के बच्चे को कार से कुचल दिया। पीके के रिमोट को चुराकर दिल्ली में बेचा जाता है क्योंकि रिमोट की कीमत अत्यधिक है और देश के छोटे शहरों में बेचने से चोर पकड़ में आ जाता। देश को लूटने वाले नीति निर्माता, माफिया, बड़े ठेकेदार, नौकरशाह क्या दिल्ली में नहीं रहते?


पीके गांधी जी का फोटो इकट्ठा करता है लेकिन उसको पता चलता है कि गांधी के फोटो की कीमत एक ही तरह के कागज पर है और सब बेकार है। क्या यह सही नहीं है कि गांधी की विचारधारा पर चलने वाली पार्टियां उनकी विचारधारा को तिलांजली देकर एक ही तरह के कागज बटोरने के लिए दिन-रात तिकड़म बाजी में लगी हुई है? पीके अपनी रिमोट पाने के लिए मंदिर, गुरूद्वारा, चर्च, मस्जिद सभी जगह जाता है लेकिन उसका रिमोट वापस नहीं मिलता है। भगवान को मानने वालों में श्रद्धा कम, डर ज्यादा होती है। जो जितना डरता है उतना चढ़ावा देता है, उतना ही अधिक झुकता है। क्या धर्म द्वारा लोगों को डराया नहीं जाता है? जब भी कोई सवाल उठाता है तो उसका सत्यानाश हो जाने का डर दिखाया जता है।


पीके फिल्म हमें बताता है कि हमें अपना प्राब्लम एक दूसरे के सहयोग से हल करना चाहिए, भगवान के भरोसे नहीं रहना चाहिए। पीके फिल्म में किसी एक धर्म को ही गलत नहीं बताया गया है, इसमें सभी धर्मों की ढोकोसले बाजी की पोल खोली गई है। यह फिल्म कोई नई बात नहीं दिखा रही है, इससे पहले कबीर, गुरू नानक, महर्षी दयानंद ने भी ऐसे पाखंडियों का खंडन किया है। पीके फिल्म द्वारा बताया जाता है कि हम अलग-अलग रंग के कपड़े पहन कर धार्मिक अंधविश्वास में डूब जाते हैं। हम खाकी, काला, सफेद, केसरिया, लाल, पीला रंग के वस्त्र डाले अहंकार में डूबे हैं कि हम सर्वश्रेष्ठ है, हम देश भक्त हैं और अपनी श्रेष्ठता देशभक्ति दिखाने के लिए मानवता का खून बहा रहे हैं। अगर हम खुद को सर्वश्रेष्ठ और देशभक्त बताते रहे तो इंसान नहीं केवल जूता ही बचेगा।


दिल्ली पुलिस रक्षक या भक्षक


सुनील कुमार


‘दिल्ली पुलिस सदैव आपके साथ’ कहने का दावा करने वाली दिल्ली पुलिस के करनामे तो हम सभी समय समय पर देखते-सुनते आये हैं। दिल्ली पुलिस ने ऐसे समय में बहादुरी पेश कीया है जब अच्छा सुशासन देने के नाम पर केन्द्र सरकार सत्ता में आयी है और दिल्ली पुलिस का कमान सीधा केन्द्र सरकार के हाथ में है। इस बार बेलगाम वर्दी वालों का निशाना बना 9 माह का गोपाल। सरस्वती और गोपाल के जन्म के बाद मां ने नसबंदी करा लिया था। यह सोचकर कि हम दो हमारे दो के साथ परिवार सुखी होगा। हम मेहनत मजदूरी करके दोनों बच्चों को पढ़ा-लिखा कर एक अच्छा इंसान बनायेंगे।


गोपाल के पिता संतोष व मां अनिता बिहार के सहरसा व दरभंगा जिला के रहने वाले हैं। दोनों पढ़े-लिखे नहीं है और बचपन से मजदूरी करते रहे हैं। संतोष 6-7 साल की उम्र से ही बंगाल व उसके बाद हरियाणा में जा कर काम करने लगे थे। शादी होने के बाद वो पत्नी के साथ दिल्ली रहने लगे। शादी के बाद दो बच्चे हुए संतोष चाहते थे कि बेटा-बेटी पढ़े। वह अपनी तरह का जीवन अपने बच्चों को नहीं देना चाहते थे। वे मजदूरी कर अपने परिवार का पालन-पोषण करते रहे। अनिता की मां जानकी देवी बताती हैं कि उनका परिवार 50 साल से दिल्ली में रह रहा है। पहले उनकी झूग्गी तोड़ी गयी और अब रोजगार करने नहीं दिया जा रहा है। वह पूछती है की ‘‘रोजगार करना पाप है कि उनके नाती (बेटी का लड़का) की जान पुलिस वालों ने ले ली?’’


सराये काले खां से अक्षयधाम मंदिर के तरफ नेशनल हाइवे 24 पर जाते समय यमुना को पार करते ही रेनी वेल नं. 3 है। हाईवे 24 के दोनों किनारों पर फूल और सब्जी की खेती की जाती है। आफिस से घर जाते समय लोग यहां से ताजी सब्जियां लेकर घर जाते हैं और स्वादिष्ट भोजन बना-खा कर अपनी थकान दूर करते हैं। उन लोगों का क्या जो यह सब्जियां उगाते हैं? वो वहीं यमुना के किनारे आने वाले बाढ़-कीचड़, बड़े-बड़े मच्छरों के बिच अपनी दो-तीन पुश्त बिता चुके हैं। ये लोग जमीन लिज पर लेकर खेती करते हैं। कभी नुकसान, कभी फायादा झेलते हुए पुश्त दर पुश्त इसी में लगे हुए हैं। यहां इतने बड़े-बड़े मच्छर लगते हैं कि जानवरों को भी बड़ी-बड़ी मच्छरदानी में रखा जाता है। बच्चों के पढ़ने के लिए स्कूल नहीं है इसलिए ज्यादा बच्चे पढ़ नहीं पाते हैं। लक्ष्मी के मां-पिता बिहार के सहरसा जिले के हैं। लक्ष्मी का जन्म दिल्ली का है, वह 16 साल की हो चुकी है। लेकिन वह कभी स्कूल पढ़ने के लिए नहीं जा पाई, परिवार के साथ खेती में हाथ बंटाती रही। वह अनुभव के आधार पर किसी तरह से हिसाब जोड़ लेती है। लक्ष्मी अब भी पढ़ना चाहती है। उसकी इच्छा है कि कोई आये और उसको पढ़ाये। वह कहती है कि यहां काफी बच्चे इकट्ठे हो जायेंगे पढ़ने के लिए। जब उसका जन्म हुआ तब अपनी झुग्गी हुआ करती थी। लेकिन अब वह उन्हीं खेतों में रहती है जिन पर उनके परिवार लिज पर लेकर खेती करते हैं। लक्ष्मी का जिस स्थान पर जन्म हुआ था वहां आज झुग्गी की जगह भव्य मंदिर (अक्षय धाम) का निर्माण हो चुका है। वहां पर करोड़ों रू. चढ़ाये जाते हैं। उसके परिवार वालों के हाथ में एक कागज का टुकड़ा थमा दिया गया कि प्लाट मिलेगा और सपना दिखाया गया कि तुम्हारे भी अच्छे दिन आयेंगे जिसमें अच्छे मकान होगें। लेकिन आज तक अच्छे दिन नहीं आये। जानकी देवी कागज के टुकड़े को सम्भाल कर रखी हुई हैं। उनका परिवार अपनी झुग्गी की जगह लिज के जमीन पर रहने लगा और इसी जमीन से अपनी जन्म भूमि को देखते हैं जहां पर एक भव्य ईमारत खड़ी है। उसमें उन भगवानों को रखा दिया गया है जिनका जन्म पता नहीं कहां हुआ था।


यमुना खादर रेनी वेल नं. 3 पर चार मछली, एक मुर्गा व दो सब्जी की दुकानें हुआ करती थीं जिसके लिए 2000 रू. प्रति माह, प्रति दुकान मण्डावली थाने की पुलिस ले जाया करती थी। अच्छी सरकर के आने के बाद अगस्त से उनके दुकान को बंद करा दिया गया, लेकिन पेट की आग और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ये लोग चोरी-छिपे दुकान लगा लिया करते थे। यही कारण था कि पुलिस वाले इनसे मुफ्त में सब्जियां और मछलियां खाया करते थे और पैसे का डिमांड भी करते थे। 28 दिसम्बर, 2014 को दिल्ली सर्दी में ठिठुर रही थी। उस दिन दिल्ली पुलिस के चार बहादुर (अशोक, प्रकाश, प्रदीप और एक अज्ञात) सिपाही कार (एच आर 35 एफ 6703) से आये और रेनी वेल नं 3 के कमरे में शराब (प्रदीप सुबह 9 बजे से पी रहा था) पिये। शराब पिते पिते इनको मुफ्त का मछली खाने का दिल कर बैठा और संतोष से इन्होंने मछली फ्राई करने को कहा। संतोष के मना करने पर वे आग बबूला हो गये और प्रदीप ने इनको धमकी दी कि तुमको मजा चखायेंगे। ये शराब पीने के बाद तीन बजे निकले और संतोष के बेटे गोपाल (9 माह) पर कार चढ़ा दी। लोगों के चिल्लाने पर कार को बैक कर के चढ़ाया गया जिससे गोपाल की मौत हो गई और बचाने के क्रम में एक बुर्जुग महिला डोमनी देवी घायल हो गई। इसके बाद लोगों ने शोर मचाया और भागते हुए सिपाही अशोक को पकड़ लिया। इंसाफ के लिये वे नेशनल हाईवे 24 को जाम कर दोषी पुलिस वालों पर कार्रवाई करने की मांग करने लगे। इंसाफ की मांग कर रहे लोगों पर पुलिस ने लाठियां बरसाई इसके बाद अशोक को ले गयी।

मण्डावली पुलिस थाने में एक पुलिस (अशोक) वाले पर मनमाने तरीके से एफआईआर दर्ज की गई जिसमें आईपीसी की धारा 302 दर्ज नहीं लगाई गई। बाकी पुलिस वालों को साफ-साफ बचा लिया गया। जबकि मुख्य गुनाहगार प्रदीप ने कुछ दिन पहले ही श्ीाला की सब्जी की दुकान पर इसी जगह पर गाड़ी चढ़ा दी थी जिसमें शीला किसी तरह बच गई लेकिन उनकी चीजें तहस-नहस हो गईं।


मीडिया में खबर आ जाने के कारण एफआईआर दर्ज तो हुआ लेकिन वह सही आईपीसी धारा के अन्तर्गत नहीं हुआ, और दूसरे पुलिसकर्मियों को बचा लिया गया। इस पर दिल्ली के सभी सामाजिक-नागरिक-मानवाधिकार संगठन चुप्पी साधे रहे। न्याय की मांग में गोपाल के मां-बाप, नानी इस अधिकारी से उस अधिकारी के पास दौड़ रहे हैं। पेशावार घटना पर मोमबत्ती जलाने वाले क्रांतिकारी-सामाजिक संगठनों को अपनी शहर की घटना दिखाई नहीं दी। पेशावार में तो दहशतगर्द थे लेकिन यहां तो लोगों की ‘सुरक्षा’ देनी वाली दिल्ली पुलिस के जवान हैं। तो क्या यह घटना अत्यधिक चिंतनीय नहीं है जहां ‘रक्षक’ ही भक्षक बन गया? क्या इसी तरह का सुशासन आने वाला है? 28-30 नवम्बर को मोदी ने राज्यों, केन्द्र शासित प्रदेशों व अर्द्धसैनिक बलों के मुखिया के वार्षिक सम्मेलन में पुलिस को स्मार्ट बनाने की बात कही। इस पुलिस को आधुनिकीकरण से लेकर सेंसिटिव व एकाउंटेब्लिटि की बात कही गई है। क्या यही सेंसिटिव व एकाउंटेब्लिटि है कि एक बच्चे को कुचल दिया जाये और बाकी पुलिस बल उसको बचाने में लग जाये? इसके बावजूद पुलिस को स्मार्ट बनाने वाले ‘प्रधान सेवक’ और उनका मंत्रीमंडल गूंगा, बहरा बना हुआ है। इन गरीब मां-बाप को संत्वाना देने के लिए कोई भी सांसद, विधायक या नेतागण नहीं पहंुचे!