Saturday, August 1, 2015

याकूब मेमन की फांसी में हड़बड़ी क्यों?

>  सुनील कुमार

याकूब मेमन को 21 साल हिरसत में रखने के बाद 30 जुलाई, 2015 को सुबह लगभग 6.15 बजे फांसी दे दी गयी। याकूब मेमन को 12 जुलाई1993 को मुम्बई में हुई सिरियल बम धमाके का साजिशकर्ता माना गया। अभी तक के दिये गये फांसी की सजा में यह सबसे ज्यादा चर्चित रहा। अभी तक जो भी फांसी हुई है उस पर कुछ प्रगतिशील और मानवाधिकार संगठनों द्वारा ही आवाज़ उठाये जाते रहे हैं और भारत से फांसी की सजा को खत्म करने की लगातार बात करते रहे हैं। पहली बार ऐसा हुआ कि फांसी की सजा को लेकर कई मुख्यमंत्री, सांसद, फिल्म व खेल जगत के लोग भी आवाज़ उठाये। करीब 40 सांसदों ने राष्ट्रपति को याकूब मेमन की फांसी की सजा रद्द करने की मांग की। यहां तक कि गांधी जी के पौत्र व कलकत्ता के राज्यपाल रहे गोपालकृष्ण गांधी ने भी राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को पत्र लिखकर याकूब की फांसी की सजा पर पुनर्वीचार करने की बात कही। इन सभी के अपीलों को नजरअंदाज करते हुए राष्ट्रपति ने गृहमंत्री से सलाह करने के बाद याकूब की दया याचिका को खारिज कर दी।

राॅ के भूतपूर्व अधिकारी स्व. बी. रमन, जो कि याकूब के गिरफ्तारी/आत्मसर्मपण में मुख्य भूमिका निभाये थे, उनका 2007 का लेख उनकी मृत्यु के पश्चात् 24 जुलाई, 2015 को रिडिफ.काॅम पर छपा। रमन लिखते हैं कि आत्मसमर्पण से पहले याकूब ने जो किया था उसके लिए उसे फांसी की सजा होनी ही चाहिए, लेकिन गिरफ्तारी के बाद उसने जांच एजेंसियों के साथ जिस तरह से सहयोग की और अपने रिश्तेदारों के बारे में जानकारी दी थी उस कारण उसे इतनी बड़ी सजा देने से पहले सोचा जाना चाहिए था। सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व जज (फांसी की सजा के पक्षधर) हरजीत सिंह बेदी ने रमन के इसी लेख पढ़ने के बाद एक साक्षात्कार में कहा कि सुप्रीम कोर्ट को याकूब को फांसी देने के मामले में खुद संज्ञान लेकर उनकी सजा पर फिर से गौर करना चाहिए। अदालत और राष्ट्रपति दोनों ने इस महत्वपूर्ण लेख और बयान को नजरअंदाज करते हुए फांसी की सजा को बरकरार रखा और दया याचिका को खारिज कर दिया।

दाया याचिका खारिज होने के बाद फांसी की सजा के विरोध करने वाले वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश के घर जाकर इस केस की दुबारा सुनवाई करने के लिए कहा। मुख्य न्यायाधीश ने न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व में तीन जजों की बेंच को सुनवाई करने को कहा। मुख्य न्यायाधीश ने उन्हीं बेंच को दुबारा सुनवाई करने के लिए कहा जो दिन मंे फांसी की सजा पर मुहर लगा चुकी थी। इस स्थिति में उसी बेंच को सुनवाई के लिए देना कितना उचित है? इससे पहले न्यायाधीश दवे ने ‘मनुस्मृति’ के हवाले से कहा था - अगर राजा दोषी को सजा नहीं देगा तो पूरा पाप राजा पर पड़ेगा। न्यायाधीश महोदय संविधान की जगह मनुस्मृति को याद करते हैं।

मृत्युदंड की सजा के विरोध करने वाले संगठनों/व्यक्तियों का मानना है कि मृत्युदंड की सजा एक क्रूर सजा है। इस सजा से अपराध में कोई कमी नहीं आती है। आंकड़ें बताते है कि जिन देशों ने मृत्युदंड की सजा समाप्त कर दिये हैं वहां पर अपराध मृत्युदंड की सजा देने वाले देशों से कम होता है। मृत्युदंड की सजा राज्य द्वारा सोच-समझ कर की गई हत्या के समान होती है। दंड देना एक सुधारात्मक कार्रवाई होती है। बचपन में अध्यापक और माता-पिता द्वारा भी दंड दिये जाते हैं लेकिन वह सुधार करने के लिए होता है। ऐसे ही न्यायपालिका द्वारा जुर्म के हिसाब से दंड दिया जाता है जिससे कि वह अपनी गलतियों को सुधार सके और अपने किये हुए पर पश्चाताप करे। मृत्यु दंड एक सुधारात्मक दंड नहीं है बल्कि वह कानूनी रूप से की गई हत्या है। सरकार के पास ऐसे लोगों के लिए भी विकल्प है जिसको मानती है कि उसमें सुधार की कोई गुंजाईश नहीं है और समाज के लिए खतरा है। भारत में फांसी का रेकाॅर्ड बतता है कि अभी तक जो भी फांसी दी गई है वह दलित, अल्पसंख्यक, कमजोर तबके और राजीनतिक बदलाव करने वालों को ही दी गई है। फांसी की सजा का विरोध वे लोग भी करते हैं जो याकूब मेमन, अफजल गुरू व कसाब की फांसी के पक्षधर रहे हैं लेकिन उनके विरोध सैद्धांतिक नहीं चुनिंदा केसों में हैं। मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस व गुजरात जनसंहार जैसे हत्याकंाड कराने वालों के लिए वे तो न्यूनतम भी सजा भी देने के पक्ष में नहीं हंै। ऐसे लोगों को छुड़ाने के लिए वे जांच एजेंसियों और न्यायपालिका पर दबाव बनाते हैं कि साक्ष्य नहीं जुटाये जायें और अपराधियों को दोष मुक्त कर दिया जाये। यह उनकी जिन्दगी की दुहरी नीति है। याकूब को फांसी दिलाने के लिये वे रात में भी सुप्रीम कोर्ट के बाहर प्रदर्शन कर सकते हैं। वहीं वे माया कोडवानी, अच्युतानन्द व साध्वी प्रज्ञा जैसे अपराधियों को दोष मुक्त कराने के लिए भी प्रदर्शन कर सकते हैं। यानी चित भी मेरी पट भी मेरी। यही हाल न्यायपालिका का है। रात को कोर्ट में सुनवाई करके वह यह दिखाती है कि वह न्याय देने में कितना सक्रिय है। लेकिन उसी बेंच को यह काम सौंपा जाता है जो पहले से ही इस मामले में फांसी की सजा सुना दी है। संविधान की जगह मनुस्मृति (जो कि संविधान के उल्ट जाति, धर्म लिंग में भेद-भाव करता है) का हवाला दिया जाता है। कभी यही न्यायपालिका जनता के कांसेस को देखते हुए फांसी की सजा सुना देती है। क्या न्यायपालिका के लिए संविधान से ऊपर मनुस्मृति और‘पब्लिक कानशंस‘ हो गया है जो कि मृत्युदण्ड जैसी सजा देते समय इनका उल्लेख कर रही है? क्या हम इतना असंवेदनशील हो गये हैं कि किसी को उसके जन्म दिन पर ही फांसी देना जरूरी है? ऐसा क्या हड़बडी थी कि याकूब को 30 जुलाई को ही फांसी पर लटकाना था? जिस ‘महान‘न्यायपालिका की हम दुहाई देते रहते हैं क्या वह स्टे देकर रात की जगह दूसरे दिन भी सुनवाई नहीं कर सकती थी और ज्यादा दलीलें नहीं सुन सकती थी? क्या याकूब को फांसी देने में इसलिए हड़बड़ी की गई कि भू-अधिग्रहण, व्यापम घोटाले व ललित मोदी पर घिरी हुई सरकार को बचाया जा सके और लोगों के ध्यान को बांटा जा सके? क्या हमारा शासन-प्रशासन, न्यायपालिका भेदभाव नहीं करती है? कई ऐसे लोग हंै जो संविधान के खिलाफ क्षेत्र, जाति व धर्म के नाम पर आये दिन जहर उगलते रहते हैं। लेकिन कभी भी उन पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जाती है बल्कि ऐसे वक्तव्यों के बाद उनकी सुरक्षा को बढ़ा दिया जाता है। वहीं दूसरी तरफ मृत्यु के बाद भी मृत शरीर को परिवार को नहीं दिया जाता है और दिया भी जाता है तो उस पर कानून व्यवस्था के नाम पर कई शर्तंे थोप दी जाती हंै- जनाजे में ज्यादा लोग नहीं हांे, मृत शरीर का फोटो नहीं खिंचा जाये इत्यादि, इत्यादि। क्या यह सचमुच किसी लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष देश में ऐसा हो सकता है? 

अपने ऊपर सभ्य समाज का चादर ओढ़े हुए लोगों ने मृत्युदंड की सजा का विरोध कर रहे लोगों को देश द्रोही, आतंकवादी कहना शुरू कर दिया। मृत्युदंड का विरोध करना क्या देशद्रोही, आतंकवादी कार्य है? कानून का सम्मान करने की दुहाई देने वाले ये कौन लोग होते हैं जो संवैधानिक दायरे से ऊपर होकर लोगों को सर्टिफिकेट देने का काम कर रहे हैं? अभिजीत भट्टाचार्य ने जिस तरह से फांसी के बचाव कर रहे प्रशांत भूषण के बारे मंे लाश पर पुराने और सस्ते जूते मारने की बात की है यह किस संविधान या सभ्य समाज की पहचान है? गुजरात के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ सलमान खान का हाथ मिलने और सलामन द्वारा मोदी की तारीफ करने पर जो लोग भाजपा को धर्मनिरपेक्ष बता रहे थे उसी में से एक इन्दौर के विधायक उषा ठाकुर ने फांसी के विरोध करने पर सलमान को भी याकूब मेनन जैसा ईलाज (फांसी) करने की बात कही है। संविधान की रक्षक बनने वाली प्रशासन की भूमिका भी संदिग्ध है। यह प्रशासन जिस संविधान की रक्षा करने का दम भरती है वही संविधान लोगों को आपनी बात, धरना-प्रदर्शन करने की इजाजत देता है।

फांसी की सजा के विरोध कर रहे लोगों को यह प्रशासन संदिग्ध मानता है और धरना स्थल से वापसी पर उनका पीछा करते हुए उनके घरों तक जाता है। उनकी गाड़ियांे के फोटो लिये जाते हैं, नम्बर नोट की जाती है। क्या इसी तरह संविधान की रक्षा होगी? क्या मृत्यु दंड की सजा संविधान में रखकर ही हम सभ्य समाज बना सकते हैं?

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