Sunday, October 26, 2014

1984 कत्लेआम

1984 कत्लेआम - 30 साल बीते और कितना इंतजार!                                              
     

भारत की राजधानी दिल्ली में दिनदहाडे सडकों पर सरकारी छत्र छाया में 3000 से अधिक बेकुसूर सिख नागरिकों का कत्लेआम। एक के बाद एक नौ जांच आयोग व समितियों का मजाक। कातिल और कातिलों के सरगनाओं को कैबिनेट मंत्री और सांसदीयों के पुरस्कार। बाल भी बांका न हो इसके लिए जेड प्लस सुरक्षा कवच। इसके विपरीत सडकों पर विलाप कर इंसाफ मांगती विधवाएं और अनाथ बच्चे। न्याय की किरण बुझने से मायूस हो नषे की गर्त में समा दुनिया छोड चुके इन विधवाओं के 200 जवान बच्चे। घर बार लुटा कर मिले 25 गज के दडबेनुमा घर, लोगों के घर बर्तन मांज कर जीवनयापन करने को मजबूर विधवाएं और 30 सालों का पीडादायक इंतजार। यह भारत के माथे पर लगा वह कलंक है जिसे धोने की न तो कोई इच्छाषक्ति दिखाई देती है और न ही ग्लानि का वह भाव जो कि इसकी टीस को कुछ कम कर सके। यह कैसे विडंबना है कि एक तरफ भारत युनाइटेड नेषंस की सुरक्षा परिशद में स्थायी सीट पा कर दुनिया का थानेदार बनना चाहता है पर अपने ही देष की राजधानी में मारे गए हजारों लोगों को इंसाफ देने में असमर्थ है।
जब बडा पेड गिरता है तब धरती हिलती ही है कह कर कत्लेआम को जायज ठहराने वाले पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कांग्रेस पार्टी कुंवर नटवर सिंह जैसे नेता को तो सवाल उठाने पर बाहर का रास्ता दिखा सकती है पर सिखों के खून से रंगे हाथों वाले सज्जन कुमार और जगदीष टाइटलर आज भी उसके माननीय नेता हैं। नानावाटी आयोग की रिपोर्ट में कुछ तथ्य सामने निकल कर आए तो तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मेरा सिर षर्म से झुकता है बयान दिलवा कर सिखों को 1984 कत्लेआम भूल जाने की सलाह दिलवा दी। भूलना इतना ही आसान है तो फिर डा मनमोहन सिंह की बेटी ने हाल में जारी अपनी किताब में वह वाकया क्यों लिखा जब 1984 में मनमोहन सिंह के घर पर ही दंगाई हमला करने पहुंच गए थे! मनमोहन सिंह ने 2005 में दोशियों के खिलाफ कार्रवाई का भी भरोसा दिलाया था। लेकिन 2009 तक कुछ नहीं किया। हां, चुनावों की घोशणा के बाद सीबीआई निदेषक ने जगदीष टाइटलर को क्लीन चिट और सज्जन कुमार के खिलाफ विष्वसनीय गवाह न होने की बात कह मामला खत्म करने की बात कही। बाद में यही निदेषक महोदय दक्षिण में एक राज्य के राज्यपाल बनाए गए। किसी को भी दोशी न ठहराने वाले जस्टिस रंगनाथ मिश्रा को राज्य सभा में लाया गया तो कत्लेआम के दौरान सिखों को गिरफतार करने वाले आमोद कंठ को राश्टत्रपति से वीरता पुरस्कार और फिर कांग्रेस से विधानसभा का टिकट मिला। खैर, क्लीन चिट के तुरंत बाद सज्जन कुमार और टाइटलर को लोकसभा चुनाव की टिकट मिल गई। एक पत्रकार के तौर पर मैं समझ गया कि नानावटी आयेाग के बाद किसी जांच आयोग के 1984 कत्लेआम की जांच की कोई संभावना नहीं है। न रिपोर्ट पेष होगी न होम मिनिसटरी को कार्रवाई रिपोर्ट संसद में पेष करनी होगी। दिल्ली पुलिस कत्लेआम में षामिल थी और अब सीबीआई ने भी क्लीन चिट दे दी। कातिलों को लोकसभा के टिकट मिल गए। यानी 1984 का मुददा समाप्त। और तो और ग1ह मंत्री ने 2 अप्रैल 2009 को क्लीन चिट पर खुषी  का इजहार कर जखमों पर और नमक छिडक दिया। जब 7 अप्रैल को कांग्रेस मुख्यालय में इस बाबत सवाल पूछे तो कहा कि प्रेस वार्ता का दुरुपयोग कर रहा हूं। सांकेतिक विरोध दर्ज कराया तो टिकट काटने पडे, सज्जन कुमार के खिलाफ चार्जषीट दाखिल करने पर मजबूर हुए और टाइटलर की क्लीन चिट कोर्ट ने खारिज कर दी। अहम यह कि टिकट कटने के अगले दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि देर आए दुरुस्त आए। तो क्या मनमोहन सिंह जी मेरे सांकेतिक विरोध का इंतजार कर रहे थे। क्या वह इतने कमजोर थे कि दोशियों के खिलाफ कार्रवाई छोडिये टिकट देेने  का विरोध करने की स्थिति में भी नहीं थे! 
जो लोग भूल जाने की वकालत करते हैं उन्हें एक बार उन विधवाओं से मिल लेना चाहिए जिनकी आंखों के आंसू 30 साल बाद भी नहीं सूखे हैं। कंग्रेस मुख्यालय में तत्कालीन होम मिनिस्टर पी चिदंबरम की प्रेस कांफ्रेंस में असंवेदनषील बयान का सांकेतिक विरोध करने के बाद नवंबर 1984 कत्लेआम पर लिखी पुस्तक के प्रचार के लिए औरंगाबाद जाना हुआ तो स्पीच के बाद एक महिला रोने लगी। बोली मैं आज 26 साल बाद कुछ बोलना चाहती हूं। हम इंदौर के पास रहते थे और चाचा जी की षादी के बाद नई नवेली दुल्हन को लेकर स्वर्ण मंदिर मत्था टेकने गए थे। वहीं पता चला कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गई है। हमारी गाडी दिल्ली के पास पलवल पहुंची तो दंगाईयों ने गाडी को रोक चुन चुन कर 200 के करीब सिखों को जिंदा जला दिया। पिता, चाचा, भाई समेत घर के छह सदस्य आंखों के सामने मौत के घाट उतार दिए। लाषें तक नहीं मिलीं। 200 लोग रेल से निकाल कर मार दिए गए पर इसकी खबर कभी किसी मीडिया में कवर नहीं हुई। षदी के बाद औरंगाबाद आ गई पर हत्याकांड को कभी नहीं भुला सकती। मैंने पत्रकार की सहज उत्सुकतावष पूछा कि उसके बाद फिर स्वर्ण मंदिर कब जाना हुआ! उत्तर चैंकाने वाला था। उन्होंने कहा वीर जी, बाकी परिवार जाता है पर मैं नहीं। स्वर्ण मंदिर जाने की बात तो छोडिए उसके बाद तो मैं कभी टत्रेन पर भी सफर करने का साहस नहीं कर सकी। कैसी पीडा और सदमा लिए यह पीडित जीने को मजबूर हैं और नेता कहते हैं कि भूल जाओ। सच यह है कि जिसे भूलने की जितनी कोषिष करो उतनी ही याद आती है। आप उन विधवाओं से की हुई बातचीत भी नहीं भुला सकते जिनके परिवार के 10-10 मर्द आंखों के सामने जिंदा जला दिए गए और तीन-तीन दिन तक सामूहिक बलात्कार हुए और कपडे तक नहीं पहनने दिए गए। 
जिस देष के लंबे इतिहास में सदियों पहले हुई घटनाएं या भूलें  जनमानस को आज भी उद्वेलित कर देती हैं और आंदोलन का कारण बनती हैं वहां एक और भयंकर भूल के प्रति आंखें कैसे मूंदी जा सकती हैं! खासकर जब कातिल, पीडित और गवाह अभी भी जिंदा हैं और इन्हें दरिंदगी की सजा देकर भूल की टीस का कुछ हद तक कम किया जा सकता है। कल को जब गवाह इस दुनिया में न रहे तो इतिहास को सुधारने का मौका नहीं रहेगा। यह एक आपराधिक भूल होगी और कत्लेआम इतिहास में दफन होने के बजाय नासूर बन बन कर तंग करता रहेगा। दिल्ली में ज्यादातर वह सिख मारे गए जो कि 1947 में बंटवारे का दंष झेल सब कुछ लुटा कर मेरे परिवार की तरह दिल्ली में आ कर बसे थे। लेकिन 1984 में हुई हिंसा ने अंदर तक तोड कर रख दिया। 1947 में तो कोई स्थान था जहां आ कर बस गए लेकिन जब दिल्ली में ही सडकों पर जिंदा जलाया गया तो भला कहां जाते! क्या 1947 के खूनी बंटवारे के बाद पाकिस्तान के साथ संबंध सामान्य हो पाए! फिर हम कैसे सोच लेते हैं कि 1984 का कत्लेआम इतिहास में दफन हो जाएगा और उसकी टीस रह रह कर नहीं उठेगी! 
पिछले कुछ चार-पांच सालों में मुझे उन सिख नौजवानों के साथ चर्चा करने का मौका मिला जो 1984 के बाद पैदा हुए हैं। इनके सवाल ज्यादा तीखे हैं। नाइंसाफी के खिलाफ प्रदर्षनों में भी यही बढ चढ कर हिस्सा लेते हैं। फेसबुक और सोषल साइटस पर कत्लेआम को नरसंहार करार देने की मुहिम भी यही चला रहे हैं। पीडितों के साथ ही दर्द का इतिहास दफन नहीं होता। इनके सवाल बहुत तीखे हैं। पूछते हैं कि जब जून 1984 में गिनती के हथियारबंद लोगों को स्वर्ण मंदिर से निकालने के लिए सेना, टैंक, मोर्टार इस्तेमाल किए जा सकते हैं तो फिर उसी साल नवंबर में जब राजधानी में हजारों बेगुनाह जिंदा जलाए जा रहे थे तब सेना ने एक भी गोली क्यों नहीं चलाई! 
जिस दिल्ली पुलिस को नागरिकों को बचाना चाहिए था उसने खुद त्रिलोकपुरी के 32 नंबर ब्लाक में 400 सिखों का खुद कत्लेआम करवा दिया। जब कुसुम लत्ता मित्तल कमेटी और नानावटी आयोग ने 72 पुलिस अफसरों को पुलिस के नाम पर कलंक बताते हुए कार्रवाई करने को कहा तो सरकार ने आंखें मूंद लीं! सरहद पर पाक गोलीबारी में जवान षहीद होते हैं तो सरकार उपर्युक्त उत्तर देती है पर 1984 में दंगाईयों के हाथों मारे गए उन 54 सैन्य अफसर व जवानों के कातिलों को कभी याद तक नहीं किया गया जो कि घर से सरहद या सरहद से घर जाने के टत्रेन में चढे थे और मारे जाते वक्त सेना की वर्दी पहने हुए थे! सज्जन कुमार के खिलाफ नांगलोई में कत्लेआम के लिए एफआईआर 1992 में दर्ज होती है पर आज तक चार्जषीट बन कर कोर्ट नहीं पहुंच सकी। क्यों! ळम आर्थिक सुधारों के लिए कानून बनाने, बदलने, न्यूक्लियर डील के लिए सरकार को दांव पर लगाने तक को तैयार रहते हैं पर सांप्रदायिक हिंसा रोधी कानून 10 साल से संसद में लंबित है! हमारी प्राथमिकताएं क्या हैं! बांग्लादेष वार के हीरो ले जगजीत सिंह अरोडा को दंगाईयों से बचने के लिए इंद्र कुमार गुजराल की सहायता लेने को मजबूर होना पडा पर वह भी इंसाफ की मांग करते करते भरे दिल से दुनिया से चले गए। हिंद की चादर कहलाने वाले गुरु तेग बहादुर साहिब के षहीदी स्थान सीस गंज साहिब और रकाब गंज साहिब समेत हजारों गुरुद्वारों पर हमला हुआ लेकिन धर्मनिरपेक्षता षर्मसार नहीं हुई! 
क्यों आज तक उन गवाहों को सुरक्षा नहीं दी जा सकी! नवंबर 1984 कत्लेआम की जांच के लिए तो जांच आयोग बन गए पर यह जांच कभी नहीं हुई कि 30 सालों तक न्याय क्यों नहीं हो पाया! अगर आज भी यह जांच न की गई कि न्याय की राह में किसने और कैसे रोडे अटकाए, क्या हथकंडे अपनाए! फिर भला कैसे इनकी पुनराव1त्ति को रोक पाएंगे! राहुल गांधी को अपनी दादी की हत्या पर गुस्सा आया लेकिन हजारों बेगुनाह नागरिकों को हत्या पर नहीं1 कांग्रेस से इनसाफ की आषा भी नहीं की जा सकती। अरविंद केजरीवाल ने एसआईटी का गठन किया था लेकिन उसके बाद से कार्रवाई आगे नहीं बढी। क्या नरेंद्र मोदी 2002 गुजरात दंगों के फेर में 1984 कत्लेआम पर चुप्पी तो नहीं साध लेंगे! यदि देष हजारों नागारिकों के कातिलों को सजा न दे पाया तो फिर वह भारत एक सपना ही रह जाएगा जिसका सपना आजादी के मतवालों ने मिल कर देखा था। 
 -  जरनैल सिंह 

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