Friday, December 23, 2016

पैर है लेकिन नीचे जमीन नहीं है

सुनील कुमार
आज पृथ्वी पर एक अनुमान के मुताबिक 750 करोड़ आबादी रहती है। इस आबादी के एक प्रतिशत ऐसे लोग हैं जो 99 प्रतिशत सम्पत्ति के मालिक बने हुये हैं। इस सम्पत्ति को बनाये व छुपाये रखने के लिये लोगों को किसी न किसी रूप से आपस में लड़ाते रहते हैं जिसके कारण जाति, नस्ल, क्षेत्र, धर्म के नाम पर लड़ाई होती रहती है। इस लड़ाई में कुछ लोगों को अपने जान-माल से हाथ धोना पड़ता है तो कुछ अपनी जिन्दगी को बचाने के लिये अपनी जीविका के साधन को छोड़कर पृथ्वी के दूसरे हिस्से में चले जाते हैं। शरणार्थियों के लिये काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनएचसीआर के मुताबिक प्रतिदिन 36,000 लोगों को जबरन विस्थापित होना पड़ता है। अब तक 6,53,00,000 लोगों को जबरन विस्थापित कर दिया गया जिसमें से 18 वर्ष तक के करीब 50 प्रतिशत लोग हैं। इसमें से एक करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके पास किसी देश की नागरिकता नहीं है और वे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आने-जाने की आजादी जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं।

बर्मा में रोहिंग्या समुदाय
भारत के पड़ोसी देश बर्मा से लाखों की संख्या में रोहिंग्या श्रीलंका, थाईलैंड, इंडोनेशिया, मलेशिया, बांग्लादेश, भारत सहित कई देशों में शराणार्थी के रूप में रह रहे हैं। 2014 की जनगणना के अनुसार बर्मा की जनसंख्या 5.5 करोड़ के आस-पास थी जिसमें 87.9 प्रतिशत बौद्ध, 6.2 प्रतिशत क्रिश्चियन, 4.3 प्रतिशत इस्लामी, .5 प्रतिशत हिन्दू तथा .8 प्रतिशत आदिवासी हैं। रोहिंग्या समुदाय को बर्मा की नागरिकता प्राप्त नहीं हैं। बौद्ध उनको बाहर से आये हुये बताते हैं जबकि रोहिंग्या समुदाय का इतिहास बर्मा में सैकड़ों वर्ष पुराना है। 2010 के चुनाव में रोहिंग्या समुदाय ने वोट डाला था, उसके बाद उनसे वोट डालने का अधिकार भी छीन लिया गया। रोहिंग्या पर अनेकों तरह के जुल्म होते रहते हैं जिसके कारण संयुक्त राष्ट्र संघ ने रोहिंग्या को दुनिया के सबसे अधिक उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों में से एक माना है। रोहिंग्या को बर्मा में एक जगह से दूसरे जगह जाने के लिये पुलिस से परमिशन की जरूरत होती है, यहां तक कि इलाज तथा शादी तक के लिये भी परमिशन लेना होता है। जानवरों के बच्चे पैदा करने से लेकर मरने तक की सूचना पुलिस थाने में दर्ज करानी पड़ती है। जानवरों के मरने या घर जल जाने पर भी सरकार को रोहिंग्या समुदाय हर्जाना देता है। फसलों का एक हिस्सा सरकार को देना पड़ता है। सैनिक उनको अपने ठिकानों पर ले जाकर काम करवाते हैं, पहरा दिलवाते हैं जहां पर उनको हमेशा जागना होता है। थोड़ी सी आंख लगने पर उनके साथ अमानवीय बर्ताव किये जाते हैं तथा हर्जाना वसूला जाता है। महिलाओं के साथ बलात्कार आम बात है। एक अनुमान के मुताबिक रखाइन प्रांत में रोहिंग्या की आबादी करीब दस लाख है जो और प्रांतों से सबसे ज्यादा है। तीन दशक बाद 2014 में जब बर्मा की जनगणना हुई तो अधिकारियों ने रोहिंग्या मुसलमान के नाम पर जनगणना करने से मना कर दिया और कहा कि वह अपने आप को बंगाली मुसलमान पंजीकृत करवाएं, अन्यथा उनका पंजीकरण नहीं किया जायेगा। 2012 में करीब एक लाख लोग विस्थापित हुये और टाईम पत्रिका के अनुसार करीब 200 लोग मारे गये। बांग्लादेश जाते समय लगभग 120 लोग नाव पलटने से मारे गये।

रोहिंग्या राइट्स ऑर्गनाइजेशन के अराकन प्रॉजेक्ट के डायरेक्टर क्रिस लीवा का कहना है कि 19 अक्टूबर, 2016 को सुरक्षा बलों द्वारा एक ही गांव की करीब 30 महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। 20 अक्टूबर को दो लड़कियों तथा 25 अक्टूबर को दूसरे गांव में 16 से 18 वर्ष की पांच लड़कियों के साथ बलात्कार किया गया। बांग्लादेश में यूएनएचसीआर के प्रमुख जॉन मैकइस्सिक ने कहा है कि सुरक्षा बल रोहिंग्या समुदाय के पुरुषों और बच्चों की हत्याएं कर रहे हैं, महिलाओं से बलात्कार कर घरों को आग लगा रहे हैं। ह्यूमन राइट्स वाच ने कुछ जले हुए गांवों की तस्वीरें जारी की हैं जिसके अनुसार 430 घरों को जलाया गया है। सेना हेलीकाप्टरों से गोलियां बरसा रही है। इन दावों के उलट बर्मा के अधिकारियों का कहना है कि रोहिंग्या खुद अपने घरों को आग लगा रहे हैं। रखाइन प्रांत में मीडिया और राहतकर्मियों के जाने पर पाबंदी लगा दी गई है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने हाल ही में अपने बयान में रोहिंग्या की स्थिति पर चिंता जताई और आंग सान सू ची से कहा है कि रखाइन प्रांत का दौरा कर वहां के लोगों से सीधी बात करें। एक अनुमान के मुताबिक अब तक बर्मा में लगभग बीस हजार रोहिंग्या मारे जा चुके हैं।

शरणार्थी के रूप में रोहिंग्या
बर्मा में हो रहे उत्पीड़न से बचकर जब रोहिंग्या बांग्लादेश या अन्य देशों को जाते हैं तो वहां भी इनके साथ लूट-खसोट किया जाता है। बांग्लादेश से भारत में आने के लिये इनको दलालों की मदद लेनी पड़ती है। दलाल इनको बॉर्डर पार कराने के लिये आठ से दस हजार रू. प्रति व्यक्ति लेते हैं। जम्मू में रहने वाली शाजिया बताती है कि जब वह बांग्लादेश से भारत में आई तो दलाल उनके परिवार से आठ हजार रू. प्रति व्यक्ति लिया,साथ ही सुरक्षा के नाम पर महिलाओं के जेवरात उतरवा कर अपने पास रख लिये और उनको छोड़कर रातों-रात भाग गया। इसी तरह की कहानी सभी रोहिंग्या के साथ घटित हुई। रोहिंग्या समुदाय के लोग बताते हैं कि कभी-कभी बॉर्डर पार करने में उनका परिवार का साथ छूट जाता है या पैसा कम होने पर दलाल परिवार के किसी महिला को अपने साथ रख लेता है और उनको किसी के हाथ बेच देता हैं। इतनी कठिन परिस्थितियों में जब वह भारत जैसे देश में 8 बाई 10 के झोपड़ीनुमा किराये के मकान में रहते हैं तो उनको आजादी मिलती है कि वह भारत में कहीं भी आ जा सकते हैं। भारत में आने के बाद रोहिंग्या ज्यादातर दिहाड़ी मजदूरी और खेती का काम करते हैं। कुछ लोग जानवरों के देखभाल या ऑफिस,मॉल व घरों में सफाई का काम करने लगते हैं। इनके सामने सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि इन्हें प्रतिदिन काम नहीं मिलता है। हरियाणा जैसे जगह पर खेतों में काम कराने के बाद मनमर्जी मजदूरी दी जाती है।

रोहिंग्या समुदाय की संघर्षपूर्ण जिन्दगी में और भी दिल दहला देने वाली घटनायें होती रहती हैं, जैसा कि 25-26 नवम्बर की रात जम्मू के नरवाल में रोहिंग्या बस्ती में आग लग गई। 83 घरों में से 56 घर धू-धू कर जल उठे। जिसके जिस्म पर जो कपड़े थे वही पहने हुये जान बचाने के लिये बाहर भागे और अपनी आंखों के सामने अपने घरों को जलते हुये असहाय रूप से देखते रहे। इन्हीं परिवारों में से एक परिवार इस आग की भेंट चढ़ गया। जोहरा हथुन बेवा हैं, वह अपनी बेटी और बेटों के साथ इसी बस्ती में 4 साल से रह रही हैं। उनकी बेटी नुनार (25 साल) अपने पति सलीम और दो बच्चे रूबिना अख्तर (8 साल) व रूसिना अख्तर (डेढ़ साल) के साथ इस बस्ती में हंसी-खुशी रहती थी। नुनार ने अपनी बहन नुरूसबा की बेटी तस्मीन (17 साल) को अपने घर पर सोने के लिये बुला लिया था। इस आग में नुनार, सलीम, रूसिना व तस्मीन की जलने से मौत हो गई, जबकि रूबिना अस्पताल में जिन्दगी और मौत के बीच जूझ रही है। सलीम सात हजार की नौकरी कर अपना परिवार चलाते थे। अपने बेटी, दामाद और बच्चों के गम ने जोहरा हाथुन को इतना तोड़ दिया है कि उस दिन के बाद से उनके आंख में आंसू ही दिखते हैं। इस बस्ती में एक मदरसा है वह भी आग की भेंट में चढ़ चुका है। मौलवी मुहम्मद रफीक बताते हैं कि इस मदरसे में 100 से अधिक बच्चे पढ़ते हैं जो दूसरे बस्ती से भी पढ़ने के लिये आया करते थे। मदरसा में काफी राशन और समान था जो आग में जल चुका है, जिसका मूल्य लगभग दस लाख रू. है।

इस बस्ती में रहने वाले सबीक ने बताया कि वह बर्मा में खेती करते थे। उनके चार भाई थे। तीन भाईयों और पिता को जेल में बर्मा की सरकार ने मार दिया तो वे भाग कर यहां आ गये। सबीक बताते हैं कि बस्ती जलने पर एनजीओ और अन्य लोगों ने उनकी मदद की, लेकिन मृत परिवार को सरकार की तरफ से अभी तक कोई मुआवजा नहीं मिला है और न ही सरकार ने पीड़ित परिवार को बताया है। शब्बीर अहमद अपने पत्नी और बच्चे के साथ इसी बस्ती में रहते हैं। उनके परिवार के कुछ सदस्य बर्मा में रहते हैं। शब्बीर ने बताया कि उनके पास पैर है लेकिन पैर के नीचे जमीन नहीं है। वह बताते हैं कि घर से फोन आया था कि वे लोग छह दिन से भूखे हैं, पैसे मांग रहे थे। पास में खड़ी एक महिला ने कहा कि ‘‘हमें सरकार से झुग्गी चाहिये बस, अल्लाह का बहुत बड़ा शुक्रिया होगा’’। इन लोगों का कहना है कि बर्मा में भी हिन्दुस्तान की तरह लोग मिल-जुल कर रहें, वहां भी डेमोक्रेसी हो जाये और हमें नागरिक का अधिकार मिल जाये तो हम बर्मा जा सकते हैं। वे चाहते हैं कि भारत सरकार उनकी समस्याओं को सुलझाने के लिये पहल करे। उनका कहना था कि हम यहां झुग्गी जल जाने पर भी शकुन से हैं वहां तो मां के सामने बेटियों के साथ बलात्कार किया जाता है।

यूएनसीएचआर की सहयोगी संस्था दाजी (डेवलपमेंण्ड एण्ड जस्टिस इनिशिएटिव) के निदेशक रवि हेमाद्री ने बताया कि भारत में रोहिंग्या शरणार्थियों की संख्या लगभग दस हजार के करीब हैं, जो राजस्थान के जयपुर, दिल्ली, हैदराबाद, तामिलनाडु, उत्तर प्रदेश के मेरठ, अलीगढ़ और सहारनपुर में छोटी संख्या में तथा हरियाणा के मेवात और जम्मू के नरवाल, भठिंडा में ज्यादा संख्या में हैं। दाजी, यूएनसीएचआर के साथ मिलकर इनके स्वास्थ्य और शिक्षा के लिये काम करता है। दाजी निदेशक के अनुसार रोहिंग्या के लोग ज्यादातर टीवी और मलेरिया की बीमारी ग्रसित हैं।

जब ये शरणार्थी इतनी मुश्किल से भारत में रह रहे हैं व भारत को एक मॉडल के रूप में देख रहे है और उनकी कल्पना है कि बर्मा भी ऐसा देश बने, तब भारत का राष्ट्रीय हिन्दी न्यूज पेपर 18 दिसम्बर को एक मनगढंत कहानी बनाता है- ‘‘सुरक्षा के लिये खतरे की घंटी है, रोहिंग्या समुदाय की बढ़ती तदाद’’ और उनको पाकिस्तान के साथ लिंक करता है। यह न्यूज पेपर इनकी समस्याओं और उनके समाधान पर बात नहीं करता। क्या वह न्यूज पेपर यह चाहता है कि वे लोग बर्मा में रहें और मारे जाते रहें?

विश्व में बौद्ध धर्म अपने अहिंसक प्रवृत्ति, सहिष्णुता व करूणा के लिये जाना जाता है। बर्मा में बौद्ध धर्म मानने वालों का शासन है, उसके बाद भी बर्मा में रोहिंग्या समुदाय को प्रताड़ना सहनी पड़ रही है। बौद्ध धर्म अपने को अहिंसक कहता है परन्तु उनका शिष्य बुद्ध के उपदेशों को छोड़कर आज हिंसा पर उतारू हो चुका है। बर्मा में उनके द्वारा किये गये जुल्मों के कारण ही संयुक्त राष्ट्र संघ को कहना पड़ा है कि दुनिया में सबसे ज्यादा पीड़ित रोहिंग्या समुदाय है। दुनिया को ‘शांति’ का पाठ पढ़ाने वाले दलाई लामा इस विषय पर चुप क्यों हैं? शांति के नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू ची की अपने देश में ही इस तरह की अशांति पर चुप्पी का कारण क्या है? भारत की मीडिया इतनी बड़ी घटना को तरजीह नहीं देती है, उलटे उस पर ही सवाल खड़ी कर रही है। क्या दुनिया के सभी मानवाधिकार प्रेमी संगठनों/व्यक्तियों का कर्तव्य नहीं है कि रोहिंग्या पर हो रहे उत्पीड़न के लिए बोलें, लिखें?

Thursday, December 8, 2016

ठंड की दस्तक बेघर हुए लोग

सुनील कुमार
दिल्ली की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी झुग्गी-झोपड़ियों व कच्ची कालोनियों में रहती है। इन्हीं बस्तियों में शहरों के निर्माण करने वाले मजदूर से लेकर शहर को चलाने वाले व सफाई करने वाली आबादी बसी हुई है। इन्हीं में से एक बस्ती है रिठाला की बंगाली बस्ती। इस बस्ती में रहने वाले लोग पश्चिम बंगाल के बीरभूम, मुर्शिदाबाद, बर्धमान, मालदा जिले से हैं। इस बस्ती में 95 प्रतिशत परिवार घरों से कूड़ा उठाने से लेकर सड़कों, गलियों, मुहल्लों, कचरा स्थल से कूड़ा उठा कर दिल्ली को स्वच्छ बनाने का काम करते हैं। इस स्वच्छता के लिये उनको कोई पारिश्रमिक भी नहीं मिलता वह कूड़े से मिले हुये प्लास्टिक की बोतलें, प्लास्टिक, शीशे, कागज, गत्ता, लोहे को छांट कर अपनी जीविका चलाते हैं। यह रास्ते, घरों से उठाये कूड़े को अपने घर में लाते हैं और छंटाई करने के बाद उसको हफ्ते-दो हफ्ते बाद बेच देते हैं। एक अनुमान के मुताबिक 300 टन कूड़ा प्रति माह यह बस्ती वाले इक्ट्ठा करते हैं। इस बस्ती की महिलायें दूसरों के घरों में सफाई का काम करती हैं। यह बस्ती रिठाला मेट्रो स्टेशन से 300 मीटर दूर तथा एक कि.मी. की दूरी पर राजीव गांधी केंसर अस्पताल और डॉ. भीम राव अम्बेडकर अस्पताल के पास बसी हुई है। बस्ती से एक कि.मी. से भी कम दूरी पर दमकल केन्द्र है। बस्ती के एक तरफ बहुमंजिली फ्लैट्स बनाये जा रहे हैं तो दूसरी तरफ रिठाला गांव हैं, इसी गांव के कुछ लोगों द्वारा इस बस्ती वालों से 2000 से 2500 रू. प्रति झुग्गी प्रति माह किराया वसूला जाता है।

4-5 दिसम्बर की मध्यरात्री रिठाला बंगाली बस्ती में लगभग 600 झुग्गियां धूं-धूं कर जल उठी। इस आग में लोगों की कड़ी मेहनत से जोड़ी गई पाई-पाई का सामान जल कर खाक हो गया। ऐसा नहीं है कि इस बस्ती में पहली बार आग लगी हो इससे पहले भी 5 अप्रैल, 2011 को आग लग चुकी है जिसमें लोगों की मेहनत की कमाई तबाह हो गई थी। बस्ती वाले बताते हैं कि इस बार तो टेंट और खाने का सामान मिल भी गया लेकिन इसके पहले जो आग लगी थी उसमें हमें कुछ नहीं मिला था और मीडिया वालों को गांव वाले भगा दिये थे।

इस बस्ती में किराने के दुकान चलाने वाले मुराशाली जिनको बस्ती के लोग पाखी कहते हैं। पाखी तीन बच्चों और पत्नी के साथ रहते हैं उनके पत्नी और बच्चे आठ नवम्बर से गांव गये हुये हैं। पाखी बताते हैं कि वह 15 साल की उम्र में 1996 से इस बस्ती में रहते हैं। शुरूआत में वह कबाड़ चुनने का काम करते थे कबाड़ चुनने से जो पैसा इक्ट्ठा हुआ उससे किराने की दुकान खोल लिये, कुछ और पैसा इक्ट्ठा कर एक साल पहले ई-रिक्शा खरीद लिये थे। पत्नी दुकान चलाती थी वह ई-रिक्शा चलाते थे। बताते हैं कि दुकान में रखे 26 हजार के पुराने नोट सहित सभी समान जल कर खाक हो गये। पाखी सोच रहे थे कि बैंकों में भीड़ कम हो तो पुराना नोट जाकर जमा करायें। आग लगने के बाद वह दुकान में गये और केवल पुराना मोबाईल फोन ही निकाल पाये। वह अपनी जली हुई फ्रिज की तरफ देखते हुये कहते हैं कि फ्रिज नया ही था अभी दो महीना पहले उसका किश्त खत्म हुआ था। इस आग में उनका ई-रिक्शा भी जलकर स्वाहा हो गया। पाखी का कहना है कि जहां वह पन्द्रह साल पहले थे फिर से वहीं आकर खड़े हो गये। वह बताते हैं कि जो किराया लेता है वह हम लोगों का आधार कार्ड और 300 रू. लेकर गया था कि एग्रीमेंट बना कर देंगे लेकिन कभी उसने दिया नहीं। पाखी नहीं चाहते कि हम कबाड़ चुने तो हमारे बच्चे भी कबाड़ चुने। उनके तीनों बच्चे दसवीं, नवीं और छठवीं में पढ़ते हैं।

अशिलदुल शेख का जन्म इसी झुग्गी में हुआ था जिनकी उम्र अभी 22 साल हैं। वह रोहीणी सेक्टर 4 वार्ड नं. 44 से कूड़ा उठाने का काम करते हैं और उनके पिताजी रिक्शा चलाते हैं। अशिलदुल शेख बताते हैं कि यह बस्ती पहले ऐसी नहीं थी, यहां पहले काफी गड्ढ़ा था पानी भर जाता था, काफी जंगल था हम लोग जंगल में टॉयलेट के लिये जाया करते थे। लोगों ने धीरे-धीरे अपने घरों को मलवे भर-भर कर ऊंचा किया। जंगल काट कर यह सब बिल्डिंग बन गई तो घर के पास ही गड्ढ़ा खोद कर टॉयलेट बना लिया। पानी के लिये नल लगा लिये तब कहीं जाकर हम यहां रह पाते हैं।

चौथी क्लास में पढ़ने वाली सोनाली को आशा है कि ठंड से बचने के लिये नानी के घर से कपड़े आयेंगे। सोनाली कि सभी किताब, कॉपी जल चुकी है, वह कहती है कि 3-4 दिन बाद जाकर स्कूल में पता करेगी कि कैसे पढ़ाई हो पायेगी। सोनाली के पिता पिंकु कबाड़ गोदाम में छंटाई का काम करते हैं जिससे उनको 5-6 हजार रू. मिल जाता है। पिंकु का कोई बैंक का खाता नहीं है। सोनाली के नाम से ही स्कूल का बैंक खाता है जिसमें200 रू. है। सोनाली की मां रूपाली बताती हैं कि दोबारा घर को बसाने में कम से कम तीन-चार साल लग जायेंगे। सफिदा के रिश्तेदार बताते हैं कि सफिदा परिवार सहित घर गई हुई है और उनका सभी समान जल कर खाक हो गया है।

हसीना शेख पत्नी सयरूल शेख अपनी जली हुई झुग्गी को साफ कर रहने लायक बनाने की कोशिश कर रही थी। वह बताती हैं कि उनके पति रिठाला क्षेत्र में सड़क से कबाड़ चुना करते थे अब उनका पैर टूट गया है। हसीना रोहणी तेरह सेक्टर में 5-6 घरों में सफाई का काम करती हैं। उनके दो बेटे हैं जिनकी शादी हो चुकी है वह भी परिवार के साथ यहीं रहते हैं और कूड़ा उठाने का काम करते हैं। उनके घर के कूलर, पंखा, मोबाईल, बर्तन सहित इक्ट्ठा किए हुए 15000 हजार रू. जल कर खाक हो गये। वह बताती हैं कि 1800 रू. किराया देना पड़ता है और 200 रू. बिजली का। उनको किराये लेने वाले का नाम पता नहीं है वह बताती हैं कि वे लोग आते हैं और किराया लेकर जाते हैं। वहीं पर खड़े दूसरे व्यक्ति ने बताया कि छह-सात अलग-अलग लोग हैं जो पूरे बस्ती से किराया वसुलते हैं। झुग्गी जलने के बाद किराया ले जाने वाला कोई व्यक्ति नहीं आया।

कबीर शेख सेक्टर सात में कूड़ा उठाते हैं परिवार के साथ इस बस्ती में रहते हैं। वह बताते हैं कि उनका 50-60 हजार का समान जल गया है। तीस हजार का दरवाजा गांव भेजने के लिये खरीद कर लाये थे वह भी जल गया। कबीर 5-6 माह के कूड़े इक्ट्ठा किये थे वह भी जल गया। कबीर चाहते हैं कि सरकार ऐसा करे कि हमसे कोई किराया नहीं लिया जाये।

बस्ती वालों का कहना है कि दमकल गाड़ी आग लगने के एक घंटे बाद आई जबकि दमकल केन्द्र यहां से बहुत नजदीक है 5-10 मिनट में दमकल की गाड़ी आ सकती थी। गाड़ी जिस रास्ते से आई वह रास्ता पहले से सीवर डालने के लिये खुदा था। अगर गाड़ी दूसरे रास्ते से आई होती तो झुग्गियां बच गई होती। दमकल गाड़ी देर से आने पर बस्ीत वालों ने अपना रोष जताया। उनका कहना है कि हमारा कई महीनों का कबाड़ इकट्ठा था पहले कबाड़ के रेट कम होने से नहीं बेच रहे थे, इधर नोट बंदी के कारण कबाड़ बेचने में परेशानी हो रही थी। हम किसी तरह अपना गुजारा करने के लिए परिवार के अन्य लोगों के दूसरे काम या छोटे-मोटे कबाड़ बेच कर गुजारा कर रहे थे। बस्ती वालों से किराया लेने वालों का नाम पूछने पर साफ मना करते हैं कि हम किराया लेने वाले का नाम नहीं बता सकते नहीं तो हमें मार-पीट कर भगा दिया जायेगा। अब लोगों को ठंड से बचने की चिंता सता रही है।

बस्ती में ही जिला मजिस्ट्रेट से मुलाकात हुई जब उनसे यह पूछा गया कि यह जमीन किसकी है तो जिला मजिस्ट्रेट का कहना है कि उन्हें जमीन के विषय में नहीं पता, अभी वह रिलिफ पर ध्यान दे रहे हैं। जबकि उनके साथ चल रहे एक अधिकारी ने दबी जुबान में प्राइवेट जमीन होने की बात कही। जिला मजिस्ट्रेट ने 280 झुग्गियां जलने की बात बताई जबकि लोगों का कहना है कि 600 के करीब झुग्गियां जली है। शाम सात बजे तक 10-12 टेंट ही लग पाये थे। जबकि वही बगल में पाखी की बहन अपने 5 साल के बच्चे को गोद में लेकर ठंड से बचाने की कोशिश कर रही थी।

बिना पारिश्रमिक लिये शहरों को स्वच्छ बनाने वाले लोगों की सुरक्षा कि जिम्मेदारी किसकी है? कौन बता सकता है कि यह जमीन किसकी है? कौन इन बस्ती वालों को सुरक्षा दे सकता है ताकि वह निर्भिक होकर बता सकें कि उनसे अवैध किराया वसूली करने वाला व्यक्ति कौन है? क्या उनको इस तरह की अवैध वसूली से कोई सिस्टम है जो छुटकारा दिला सके?

मेहतकश जनता केवल अपने आवास में ही नहीं कार्यस्थल पर भी सुरक्षित नहीं है। आवास में उसको जान-माल की क्षति होती है वहीं कार्यस्थल पर मुनाफाखोरों की जेब भरने के लिये उनको जान गंवानी पड़ती है। 10 नवम्बर को गाजियाबाद जिले के शहीद नगर में जैकेट बनाने वाली फैब्रिकेटर में 13 लोगों (अपुष्ट खबरों के अनुसार 17 लोग) की जलकर मौत हो गई। 12 नवम्बर को सिरसपुर में दो सगे भाईयों की कम्पनी में विस्फोट होने से जान चली गई। 12 नवम्बर को ही बसंत स्कावॅयर मॉल में सफाई कर्मचारी को सिवरेज सफाई करने के लिये उतार दिया गया जिसमें एक मजदूर की मौत हो गई और एक गंभीर रूप से घायल हो गया।

मेहनतकश आबादी जो कि शहर को बनाती है, चलाती है, स्वच्छ रखती है उसकी इस तरह की मौत के जिम्मेवार कौन है? सरकार दावा करती है कि वह गरीबों के लिये है तो आखिर इनकी हालात में कोई बदलाव क्यों नहीं आ पा रहा है? क्या यह वर्गीय समाज मेहनतकश आबादी को एक निर्भिक, साफ-सुथरी, जिन्दगी दे सकता है जिसमें उनके बच्चों का भविष्य उज्जवल हो? क्या इन बस्ती वालों को अवैध वसूली से बचाया जा सकता है?

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