Monday, December 22, 2014

किसका धर्मांतरण?


सुनील कुमार
आगरा में हुए धर्मांतरण के मुद्दे पर संसद से सड़क तक चर्चा हो रही है। राज्यसभा में विपक्ष प्रधानमंत्री के वक्तव्य की मांग पर अड़ा हुआ है। वहीं सत्तारूढ़ पार्टी धार्मांतरण के मुद्दे पर कानून बनाने की बात कह रही है। इसके कारण संसद में देश के ज्वलंत मुद्दे पर चर्चा नहीं हो पा रही है और आम जनता को यह पता नहीं चल पा रहा है कि सरकार क्या कर रही है। भारत का संविधान हर नागरिक को इच्छानुसार धर्म माननेउनका प्रचार करने व धर्मांतरण की सुविधा देता हैलेकिन जब यह काम जबरिया या लालच के साथ करवाया जाता है तो वह गैर कानूनी होता है।
आगरा में बंगाल के मुस्लिम परिवार लम्बे समय से रहकर कूड़ा बिन कर अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहे थे। इन्हीं में से 57 परिवारों को विश्व हिन्दू परिषदबजरंग दलहिन्दू जागरण समिति ने हवन करा कर मुसलमान से हिन्दू बना दिया। हिन्दुवादी संगठन इसे घर वापसी या पर्रावर्तन बता रही हैंवहीं अन्य समूह इसे जबरिया धर्म परिवर्तन बता रहे हैं। विश्व हिन्दू परिषद का कहना है कि इनके पूर्वज हिन्दू थे इसलिए अब यह अपने धर्म में वापस लौट आये हैंयह धर्मांतरण का मुद्दा है ही नहीं। वहीं दूसरे लोगों का कहना है कि इनको राशन कार्डआधार कार्डपहचान पत्र देने का लालच देकर धर्म परिवर्तन कराया गयाजो कि कानूनन जुर्म है। जबरिया व लालच देकर धर्म परिवर्तन कराने की पुष्टि रामजन व मुनीरा के बयान से भी होता हैजो बताते हैं कि उनको बीपीएल राशन कार्ड व आधार कार्ड  बनवाने के लिए कहा गया और इसके लिए जो उनको कहा गया वह सब कुछ उन्होंने किया। इससे पहले ईसाई मिशनरियों पर भी यह आरोप लगता रहा है कि वो लालच देकर धर्मांतरण कराते रहे हैं। धर्मांतरण हमेशा ही हाशिये पर पड़े लोगों का ही किया जाता है।
सवाल यह है कि क्या हवन में घी डालने से और माथे पर तिलक लगाने से हिन्दू जैसी वर्ण व्यवस्था में परिवर्तन हो जाता हैयह पहले भी कबाड़ बिनने का काम करते थे और अब भी वही काम कर रहे हैं। अगर यह बात किसी व्यक्ति से पूछा जाये कि वह कौन है तो जवाब मिलेगा कि वह कबाड़ी वाला हैकबाड़ बिनता हैगंदा रहता हैगरीब है इत्यदिइत्यादि। इस तरह आगरा में कबाड़ बिनने वालों का कोई परिवर्तन हुआ ही नहीं। वह मुसलमान था तब या हिन्दू’ बनाने के बाद भी वह कबाड़ीवाला ही है। वह जिस गंदी बस्ती में पहले था आज भी उसी गंदी बस्ती में रहता हैउसी तरह के गंदे कपड़े पहनता है जिस तरह पहले पहनता था। बिमारी होने पर वही दो-चार रुपये का मेडिकल स्टोर से दवा लाकर खा लिया करता है और अपने मन को संत्वाना देता हैं कि कोई बिमारी नहीं है। उसे मुसलमान या हिन्दू कहने वाले यह नहीं जानना चहते हैं कि वह भर पेट खाना खाया कि नहीं खाया। स्वच्छता अभियान से उसकी जिन्दगी में क्या बदलाव आया हैकहीं उसकी जिन्दगी पहले से तो कठिन नहीं हो गईकूड़ा प्राइवेट हाथों में देकर इनकी रोजी-रोटी तो नहीं छीन ली गयीजिन महिलाओं के पास बुरका पहनने तक को नहीं है ऐसे इन्सानों को कोई हिन्दू या मुसलमान कैसे बना पायेगा?
इस तरह के कबाड़ीवालों की संख्या दिल्ली में तीन लाख है जो सुबह की लालिमा से पहले और रात के अंधेरे में इस गली से उस गलीइस बस्ती से उस बस्तीनदी-नाले व औद्योगिक क्षेत्रों में (बच्चे पीठ पर बोरी लियेमहिलायंे हाथ में चुम्बक लियेपुरुष रिक्शा लिये) इधर से उधरइस घर से उस घर घूमते हुए दिख जायेंगे। इसमें से 95 प्रतिशत पश्चिम बंगाल व असाम के मुसलमान हैं जो निरक्षर हैं। वे पढ़ना तो चाहते हैं लेकिन इनको पढ़ने का कभी मौका नहीं मिला।
मेरी मुलाकात मुहम्मद अली (22) से हुई। मुहम्मद असम के बरपेटा जिले के रहने वाले हैं। वे आठ साल पहले 14 साल की उम्र में पिता के साथ दिल्ली आ गये। दिल्ली के टिकरी बॉर्डर में 8ग्10 की झोपड़ी में 1300 रुपये किराया देकर रहते हैं। हैंडपम्प का पानी पीते हैं। सरकार करोड़ों रु. खर्च कर विज्ञापन करवाती है कि यह पानी पीने योग्य नहीं है लेकिन पीने के पानी का व्यवस्था नहीं करती है। मुहम्मद आठ साल पहले जब अपना गांव छोड़कर दिल्ली आये उसके बाद वह अपने गांव नहीं गये। पिता की उम्र ज्यादा होने के कारण वह वापस गांव चले गये हैं। मां और तीन बहनें पहले से ही गांव में रहती हैं। मुहम्मद उनको याद करता हैं और वे लोग मुहम्मद को याद करते हैंलेकिन 8 साल से किसी को कोई देखा नहीं हैफोन पर बात हो जाती है। जब कोई गांव जाता है तो मुहम्मद अपना फोटो उनको देता है कि उनके घर तक पहुंचा दें। इसी तरह उधर से परिवार वाले अपना फोटो भेज देते हैं। मुहम्मद अभी भी पढ़ना चाहता हैवह गांव जाकर अपने मां-बहन से मिलना चाहता है लेकिन जा नहीं पा रहा है। मुहम्मद घर का अकेला कमाऊ सदस्य हैउसको चिंता है कि ठंड में कूड़े कम मिलते हैं घर का खर्च कैसे चलेगा।
जहांगीरपुरी के के’ ब्लाक में बंगाल के लालगढ़ से आये बबलू (बबलू मुसलमान हैं लेकिन नाम से हिन्दू लगते हैं संघ परिवार इनको भी हिन्दू बताकर घर वापसी करा सकता है) रहते हैं। बबलू 7-8 साल की उम्र में मां-पिता के साथ दिल्ली के भलस्वा इलाके में आ गये। पिता और मां एक गोदाम में काम करते थे जहां पर बात-बात में इनको गाली सुनने को मिलती थी। एक दिन वह काम छोड़कर नरेला चले गये जहां पर दो रात उनको भूखे पेट रहकर गुजारनी पड़ी। भूख मिटाने के लिए बबलू ने कूड़ा बिनना शुरू कर दिया। तब से लेकर आज तक वह कूड़ा बिनने का काम ही करते हैं। वह पत्नी और दो बच्चों के साथ के’ ब्लॉक में झोपड़ी डालकर रहते हैं जिसके लिए उनको करीब 2000 रुपये चुकाने पड़ते हैं। इस बस्ती में करीब 300 परिवार रहते हैं। वे सभी लोग मुस्लिम हैं और बंगाल के लालगढ़ इलाके के रहने वाले हैं। इस बस्ती के लोग कूड़ा बिनने के लिए राजपुरा रोडमल्कागंजतिमारपुर व माल रोड जाते हैं। बबलू से यह पूछने पर कि रोहणी नजदीक है यहां क्यों नहीं  जातेतो बबलू बताते हैं कि रोहणी में कूड़ा नहीं मिलता है क्योंकि यहां प्राइवेट कम्पनियां कूड़ा उठाती हैं। इसी बस्ती में रहमानसोनू व सलामन से मुलकात हुई जो कि 12-14 वर्ष के उम्र के हैं और पढ़ना चाहते हैं लेकिन इनके पास समय नहीं होता। वे सुबह 5 बजे ही कूड़ा बिनने के लिए मल्कागंज जाते हैं दोपहर 3-4  बजे वापस लौटते है तो खाते हैं और सो जाते हैं। शाम को फिर किसी इलाके में कुड़े की तलाश में निकल जाते हैं।
दक्षिणी दिल्ली के तेहखण्ड व तुगलकाबाद में असम व बंगाल के हजारों मुस्लिम परिवार रहते हैं जो कूड़ा चुनकर अपना तथा बच्चों का पेट पालते हैं। तेहखण्ड में सरकारी जमीन पर रेलवे लाईन के किनारे झुग्गियां ंहैं जहां पर अधिकांश परिवार बंगाल के है और कुछ असम के हैं। ये लोग 15-25 साल से यहां रह रहे हैं। इन सरकारी जमीन पर झुग्गियों का किराया भी गांव वाले इनसे वसुलते हैं। तुगलाकबाद किले के अंदर जंगल में झुग्गियां हैं जहां पर असम से आये 300-350 परिवार रहते हैं। इन झुग्गियों का किराया तुगलकाबाद गांव के लोग लेते हैं। यह लोग कूड़े से लोहे के टुकड़े बिनने का काम करते हैं। वे सुबह 4-5 बजे परिवार के साथ हाथ में चुम्बक लिये हुए औद्योगिक क्षेत्र तथा तुगलकाबाद लैंड फिल एरिया में कूड़ा बिनने के लिए जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा लोहा पाने के लिए डम्फर गाड़ियों के पास में पहुंच जाते हैं जिससे कभी-कभी इनको दुर्घटना का शिकार होना पड़ता है। इनके हाथ-पैर टूट जाते हैं और कभी कभी तो जान भी चली जाती है। बच्चे घर पर रहते हैं। कभी कभी कोई स्वयंसेवी संस्था पढ़ाने आ जाती है तो बच्चे इकट्ठे हो जाते हैंतो कभी कोई दलिया या खिचड़ी बांट जाता है जिसे बच्चे चाव से खाते हैं। वे पढ़ना चाहते हैं लेकिन स्कूल नहीं है।
क्या कभी कोई मोदीविश्व हिन्दू परिषदहिन्दू जागरण समिति व बजरंग दल जैसी संस्था मुहम्मदरहमानसोनू व सलमान को पढ़ाने का बीड़ा उठा पायेगीबबलू के मां-बाप जैसे मजदूरों को इज्जत की रोटी दिला पायेगीक्या कभी इनके अधिकारों को लेकर संसद में हंगामा होगाएक तरफ धर्मांतरण के मुद्दे पर संसद ठप पड़ी है तो वहीं इसी संसद से मजदूर विरोधीकिसान विरोधीजन विरोधी बिल पास होते जा रहे हैं। शिक्षास्वास्थ्य व ग्रामीण विकास जैसे मुद्दों पर कटौती हो रही है और संसद मौन रहता है। आदानी जैसे उद्योगपतियों को सरकारी बैंक से 62 हजार करोड़ रू. देने पर सहमति हो जाती हैन तो इसके खिलाफ संसद में और न ही सड़क पर आवाज सुनाई देती हैं। सबका साथ सबका विकास का नारा देकर सत्ता में आयी मोदी सरकार क्या धर्मांतरण और पर्रावर्तन जैसे मुद्दे को उठाकर जन विरोधी कानून से जनता का ध्यान भटकाना चाहती हैक्या विपक्षी पार्टियांे का काम एक मुद्दे को लेकर झूठी शोर-शराबा करना है या श्रम कानूनभू-अधिग्रहण कानून में हो रहे बदलावशिक्षा-स्वास्थ्य में हो रही कटौती को भी जनता के सामने लाना हैभाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ माला के साथ भाला’ का मंत्र दे रहे हैंक्या यह लोगों को भड़काने वाला वक्तव्य नहीं हैइसके लिए आदित्यनाथ पर कानूनी कार्रवाई नहीं होनी चाहिएसरकार के मुखिया नरेन्द्र मोदी अपने मंत्रियों और सांसदों पर लगाम नहीं लगा पा रहे हैं। वे आर.एस.एस. को कहते हैं कि वह मंत्रियोंसांसदों को काबू में रखे। इससे साफ जाहिर होता है कि देश को आर.एस.एस. ही चला रहा है। क्या भारत सरकार लोकतंत्र’ व धर्मनिरपेक्ष’ के सिद्धांत को छोड़कर फासीवादीसाम्प्रदायिक राह पर चल पड़ी है?

Tuesday, December 2, 2014

आधार कार्ड से लाभ किसे?

  • सुनील कुमार

29 सितम्बर, 2010 को महाराष्ट्र के नन्दूरबार जिले के तमभली गांव में सोनिया गांधी द्वारा एक महिला को भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण द्वारा जारी 12 अंकों का पहचान पत्र आधार कॉर्ड देकर इस योजना का आरंभ किया गया। आधार कॉर्ड योजना को लागू करते समय नीलकेणी ने जोर देते हुए कहा था कि यह स्वैच्छिक योजना होगीलेकिन जिस तरह से इसका प्रचार-प्रसार किया गयाउससे यही लग रहा है कि यह अनिवार्य हो गयी है। यह योजना शुरूआती दिनों से ही विवादों में रही है। यह योजना सीधे-सीधे लोगों की निजता (व्यक्तिगत जानकारी) से जुड़ा हुआ है। इस विशिष्ट पहचान को लेकर ब्रिटेन जैसे देश में चुनावी मुद्दा बना है और सरकार का हार की एक मुख्य कारण रहा है। चुनाव जीतने के बाद सरकार ने न केवल योजना को रद्द कर दिया बल्कि जो डाटा इकट्ठा हुआ थाउसे भी सुरक्षित तरीके से नष्ट किया। कहा गया कि स्टेट यानी राज्य को हर नागरिक के निजता के अधिकार का सम्मान करना चाहिए।
इसी तरह भारत में भी इसका विरोध हुआ और इसे लोगों की निजता पर कुठाराघात माना गया। उस समय की विपक्षी पार्टी (भाजपाजो अब सत्ता में है) ने भी विरोध जताया था। इस पर मीडिया में बहस चली और अनेकों लेखों में लिखा गया कि यह योजना गैरकानूनी हैलोगों की निजता पर प्रहार हैमेहनतकश जनता के साथ धोखा है। संसद की स्थायी समिति ने भी सवाल उठाये। स्थायी समिति की रिपोर्ट (सिफारिशों वाले खंड में) में कहा गया है कि बायोमेट्रिक सूचना संग्रहण के काम को नागरिकता कानून 1955 तथा नागरिकता नियम 2003 में संशोधन के बगैर कोई अन्य विधेयक बनाकर सही ठहराने की गुंजाइश नहीं बनतीऔर इसकी संसद को विस्तार से पड़ताल करनी होगी।’ समिति की रिपोर्ट को भी उस समय की कांग्रेस सरकार ने अनदेखा कर आधार कार्ड बनाने का काम जारी रखी।
इस योजना को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने 21 सितम्बर, 2013 को आदेश दिया कि आधार कार्ड की अनिवार्यता खत्म की जाए। ‘‘किसी भी सरकारी सुविधा हासिल करने के लिए आधार कार्ड जरूरी नहीं है। किसी भी व्यक्ति का आधार डीटेल पुलिस या सीबीआई को कार्ड होल्डर की अनुमति के बिना नहीं दिया जाएगा। साथ में यह भी ध्यान रखा जाए कि किसी भी अवैध नागरिक का आधार कार्ड न बने।’’ इस पर भाजपा के अनंत कुमार ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि बीजेपी पहले ही कह चुकी है कि आधार कार्ड निराधार है। कोर्ट के फैसले के बाद कांग्रेस सरकार के व्यवहार में नरमी आई और लोगों के अन्दर आधार कार्ड बनाने का खौफ खत्म होने लगा था।
एनडीए सरकार बनने के बाद आधार कार्ड के विरोध कर रहे सिविल सोसाईटी और आम जन निश्चिंत थे कि आधार कार्ड की अब जरूरत नहीं हैक्योंकि विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने इस योजना का विरोध किया था। लेकिन सत्ता में आते ही उसने यू टर्न लिया और हर कल्याणकारी योजना को आधार कार्ड से जोड़ने का ऐलान कर दिया। इस योजना के लिए 1200 करोड़ रुपये भी आवंटित कर दिया गया। इसके बाद फिर से यह बहस का विषय बना हुआ है। लोग सवाल कर रहे है सुप्रीम कोर्ट के फैसले का क्या होगालोगों की निजता कैसे बचेगी....इन सब चिंताओं के बीच में आधार कार्ड बनाने वाली कम्पनियों में खुशी हैक्योंकि वे आम नागरिकों से इसके लिए 20 से 100 रुपये तक की वसूली कर रही हैं। निःशुल्क फार्मों को बेचा जा रहा है। लोगों से पैसा वसूलने के लिए जानबूझ कर आधार केन्द्रांे पर एक से अधिक बार बुलाया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ-साफ कहा है कि कार्ड होल्डर की अनुमति के बिना उनकी जानकारी किसी भी एजेंसी को नहीं दी जा सकतीजबकि पंजीयन के दौरान ही घोषणापत्र भरवाया जाता है कि आवेदक द्वारा दी गई सूचना को प्राधिकरण उपयोग में ला सकता है। इस तरह कार्ड होल्डर की जानकारी हर विभाग के साथ साझा किया जायेगा। कार्ड होल्डर की पूरी जानकारी इलेक्ट्रॉनिक रूप में उपलब्ध रहेगी।
आधार कार्ड बनाने में धांधली को लेकर कानपुर के सिकंदरा तहसील में लोगों ने पैसा देने से मना किया तो उनको आधार कार्ड बनाने से मना कर दिया गया। इसी तरह बलिया जिले के बासडीह तहसील के बकवा गांव में एक 72 साल के बुर्जुग द्वारा पैसा देने से मना करने पर उनका आधार कार्ड नहीं बनाया गया और धक्का दे कर उन्हें भगा दिया गया। इस घटना की लिखित शिकायत बांसडीह तहसीलदार और थाने को दी गई। ईमेल के द्वारा आधार कार्ड निदेशकबलिया के जिलाधिकारीगृह सचिवउ.प्र. सरकार व भारत सरकार के गृह सचिव को देने के बावजूद उस कम्पनी पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। यहां तक कि ये सभी यह भी नहीं बता पाये कि उस क्षेत्र में कौन सी कम्पनी आधार कॉर्ड बना रही है। थाने में पुलिस अधिकारी यह समझा रहे हैं कि हमने भी पैसा देकर बनवाया हैआप भी दे दीजिये। इसी तरह की शिकायत पर फिरोजाबाद में नियम बनाये गये हैं कि आधार कार्ड बनाने वाली कम्पनियां एक सप्ताह पहले अपना ब्यौरा देगी कि किस क्षेत्र में वह आधार कार्ड बना रही है। आधार कार्ड नामांकन शिविर सार्वजनिक स्थलों (स्कूलपंचायत भवन एवं अन्य सरकारी भवनों) में ही लगने चाहिएजबकि वे गांवकस्बों के दबंग व्यक्यिों के घरों पर लगाये जा रहे है।
दिल्ली जैसे इलाके में फॉर्म नहीं दिये जा रहे हैंफॉर्म फोटो स्टेट की दुकान से 5 रु. में खरीद कर लानी पड़ रही है। दिल्ली जैसे शहरों में लाखों लोग किराये के मकान में रहते हैं जिसका पता बदलता रहता है औरपता बदलवाने के लिए 100 रुपये चुकाने पड़ रहे हैं।
इस तरह से इस योजना के कार्यान्वयन में हजारों करोड़का भ्रष्टाचार छुपा हुआ है। आपके डाटा को किस तरह से सुरक्षित रखा गया है और उस डाटा के चोरी होने पर क्या इस्तेमाल होगाकहा नहीं जा सकता। सरकार डाटा सुरक्षा का आश्वासन देती हैलेकिन उसकी कार्यप्रणाली से ऐसा नहीं लगताजब सरकार यह नहीं पता कर पा रही है कि किस इलाके में कौन सी कम्पनी आधार कार्ड बना रही है तो वह कैसे पता लगा पायेगी कि किस का डाटा किस रूप में प्रयोग हो रहा है। आधार कार्ड जब पैसे लेकर बनाये जा रहे हैं तो इसे कोई भी अवैध व्यक्ति पैसा देकर बनवा सकता है। इस योजना से आम आदमी को कितना लाभ होगा यह अनिश्चित हैलेकिन कम्पनियों को कितना लाभ होगा यह निश्चित है। आधार कार्ड को कल्याणकारी योजनाओं से क्यों जोड़ा जा रहा हैक्या गरीब लोगों का डाटा सरकार को चाहिएइस योजना को स्वैच्छिक कह कर स्वीस बैंक में पैसा रखने वालों को छूट दी जा रही है। क्या भविष्य में आधार कार्ड के पहचान पर एक धर्म विशेष व पूंजीवादी विचारधारा के खिलाफ काम कर रहे लोगों को निशाना बनाया जायेगा?